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संघनन एवं जलग्राही नाभिक (Condensation and Hygroscopic Nuclei)

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संघनन एवं जलग्राही नाभिक (Condensation and Hygroscopic Nuclei)

वायुमण्डल में संघनन की क्रिया के लिए आवश्यक है कि अति सूक्ष्म नाभिक प्रचुर मात्रा में उपस्थित हों जिनके इर्द-गिर्द वाष्प जल के सूक्ष्म कणों में परिवर्तित हो सके। पहले वैज्ञानिकों का विचार था कि संघनन के लिए वायु में धूल के अतिसूक्ष्म कण, चाहे जिस प्रकार के भी हों, पर्याप्त होते हैं। किन्तु आगे चलकर यह स्पष्ट हो गया कि सामान्य धूल कणों पर संघनन क्रिया नहीं होती। 

संघनन के लिए ऐसे नाभिकों का होना अपेक्षित है जो जलग्राही हों। ऐसे जलग्राही नाभिक (hygroscopic nuclei) जो वायुमण्डल में सामान्य रूप से पाए जाते हैं, वो निम्नलिखित हैं: 

संघनन एवं जलग्राही नाभिक के स्त्रोत (Sources of Condensation and Hydrophobic Nuclei)

समुद्रों के जल के द्वारा वाष्पीकरण की क्रिया से वायुमण्डल में नमक के अतिसूक्ष्म कण उपलब्ध होते हैं। वायु के द्वारा उड़ाए जाने पर ये कण महाद्वीपों पर पहुँच जाते हैं। कल-कारखानों की चिमनियों से निकला हुआ धुआँ भी, जो कोयला अथवा खनिज तेल के जलने से निकलता है, जलग्राही नाभिकों की आपूर्ति करता है। 

ब्रंट महोदय के अनुसार वायुमण्डल की प्रति घन सेन्टीमीटर वायु में 2,000 से 50,000 की संख्या में जलग्राही नाभिक विद्यमान रहते हैं। इनकी सूक्ष्मता का अनुमान इनके अर्द्धव्यास से लगाया जा सकता है जो 10-5 से 10 सेन्टीमीटर होता है। टेलर के अनुसार इन नाभिकों का व्यास 0.01 से 50 माइक्रान तक होता है। 

जलग्राही नाभिकों की मात्रा सब जगह एक समान नहीं पाई जाती। प्रति घन सेन्टीमीटर वायु में कई सौ से कई लाख नाभिकों के पाए जाने की सम्भावना रहती है। औद्योगिक नगरों के आस-पास की वायु में इन नाभिकों की संख्या प्रति घन सेन्टीमीटर एक लाख से ऊपर रहती है। यही कारण है कि वहाँ सदैव कोहरा (अन्य दशाओं के अनुकूल होने पर) पड़ता है। 

संघनन एवं जलग्राही नाभिकों पर कैसे होती है संघनन की प्रक्रिया

परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि एक ही रासायनिक संघटन वाले नाभिकों में संघनन सर्वप्रथम उन नाभिकों पर होता है जो अपेक्षाकृत बड़े होते हैं। इन जलग्राही नाभिकों का आकार जितना ही छोटा होगा, संघनन के लिए उतनी ही अधिक अतिसंतृप्तता (supersaturation) की अपेक्षा होगी। वायुमण्डल में एक ही समय विभित्र प्रकार के नाभिक उपस्थित रहते हैं, जैसे, सोडियम क्लोराइड तथा गन्धक वाले द्रव्य। यह आवश्यक नहीं है कि बड़े नाभिकों पर सर्वप्रथम संघनन प्रारम्भ हो; इसका प्रारम्भ पहले उन नाभिकों पर होता है जिनकी जलग्राहक शक्ति अधिक होती है। 

यदि वायुमण्डल में बड़े नाभिकों की संख्या अधिक होती है, तो वायु के बिना अधिक अतिसंतृप्त हुए ही मुक्त रूप से संघनन होता है। इस प्रकार जब कि बड़े-बड़े नाभिक जल की बूंदों में बदल जाते हैं, लघु आकार वाले नाभिक संघनन से वंचित रह जाते हैं। इस सम्बन्ध में ऐतकेन (Aitken) का कार्य सराहनीय है। उनके अनुसार एक घन सेन्टीमीटर कोहरे में जल की बूंदों की संख्या जलग्राही नाभिकों की अपेक्षा कम होती है। 

वायुमण्डल की सापेक्ष आर्द्रता 100% होने के पूर्व ही इन नाभिकों पर संघनन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। कोहरे के परीक्षण से देखा गया है कि उसमें वायु संतृप्त नहीं रहती। ओवेन्स (J.S. Owens) के अनुसार कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जब 74% सापेक्ष आर्द्रता पर ही इन नाभिकों पर संघनन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

जलग्राही नाभिकों पर संघनन एक सतत् प्रक्रिया होती है जिसका प्रारम्भ न्यून सापेक्ष आर्द्रता से ही हो जाता है। ये नाभिक अदृश्य जल की बूंदों में परिणत हो जाते हैं। जब सापेक्ष आर्द्रता 100% हो जाती है, तो ये बूंदें तीव्र गति से बड़ी होने लगती हैं। इस प्रकार वायुमण्डल में पहले धुन्ध (haze), तदुपरान्त कोहरा या मेघों का निर्माण होता है। 

इस सम्बन्ध में पाठकों को यह स्मरण दिलाना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भारत के प्राचीन ऋषियों और महर्षियों को धुएं की मेघ निर्माणकारी शक्ति का अवश्य ही ज्ञान रहा होगा, तभी तो उन्होंने यज्ञ तथा हवन आदि का इतने व्यापक रूप में समर्थन किया था। लोक कल्याण के लिए अन्न, अन्न के लिए वृष्टि, वृष्टि के लिए मेघ तथा मेघ के लिए यज्ञ का जोरदार समर्थन किया गया था।

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