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जलवायु परिवर्तन (Climatic Change)

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जिस प्रकार की जलवायु का आज हम अनुभव कर रहे हैं वह थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव के साथ पिछले 10 हज़ार सालों से विद्यमान है। अपने जन्म के बाद से इस ग्रह ने अनेक भूमंडलीय जलवायविक परिवर्तन (Climatic Change) देखे हैं।

क्या है जलवायु परिवर्तन (Climatic Change)

प्रकृति में वायुमंडल की संरचना अत्यंत श्रेष्ठ ढंग से हुई है। यह स्थिर न रहकर सदा गतिशील रहता है। वायुमंडल की यह गत्यात्मकता इसके निचले स्तरों में बहुत ज्यादा जटिल है। वायुमंडलीय विशेषताएँ केवल एक स्थान से दूसरे स्थान पर ही नहीं बदलतीं वरन् ये समय के साथ-साथ भी बदल जाती हैं। पृथ्वी का भूगर्भिक इतिहास इस बात का गवाह है कि अतीत में हर युग की अपनी विशिष्ट जलवायवी दशाएँ रही हैं। 

स्पष्ट है कि यहां जलवायु परिवर्तन (Climatic Change) से आशय 30-35 वर्षों में या हज़ारों वर्षों में मिलने वाली जलवायवी भिन्नताओं के अध्ययन से नहीं है वरन् इसमें लाखों वर्षों से चले आ रहे समय मापकों में होने वाली जलवायु की भिन्नताओं का अध्ययन शामिल किया जाता है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब से वायुमंडल बना है तब से जलवायु में परिवर्तन हो रहे हैं, लेकिन ये परिवर्तन स्थायी कभी नहीं रहे। एक परिवर्तन दूसरे परिवर्तन के लिए जगह बनाता आया है।

विश्व में जलवायु परिवर्तन तीन ऐतिहासिक खंड

  • भू-वैज्ञानिक अतीत काल (Geological Past)
  • ऐतिहासिक काल (Historical Period)
  • अभिनव पूर्व काल (Recent Past)

भू-वैज्ञानिक अतीत काल (A Geological Past)

  • अनुमान है कि आज से 425 करोड़ साल पूर्व वायुमंडल का तापमान 37° सेल्सियस रहा होगा। लगभग 250 करोड़ साल पहले ये तापमान घटकर 25° सेल्सियस हो गया। भूगर्भिक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि तापमान घटने का यह सिलसिला जारी रहा और 250 करोड़ से 180 करोड़ वर्ष पहले की अवधि के दौरान हिमयुग आया। हिमयुग के आने का संकेत हमें उस समय की हिमनदियों से बनी स्थलाकृतियों से मिलता है।
  • इसके बाद आने वाले 95 करोड़ वर्षों तक जलवायु उष्ण रही और हिमनदियां लुप्त हो गईं।
  • वैज्ञानिक अध्ययन प्रमाणित करते हैं कि कैंब्रियन युग (लगभग 60 करोड़ वर्ष पूर्व) से पहले भू-पटल के अधिकांश भागों पर हिम की चादर बिछी हुई थी, जिस कारण भू-पटल पर शीत जलवायु का प्रभुत्व था।
  • ओरडोविशियन कल्प (50 करोड़ वर्ष पहले) तथा सिल्युरियन कल्प (44 करोड़ वर्ष पहले) में जलवायु गर्म रही। यह जलवायु हमारी वर्तमान जलवायु जैसी थी।
  • इसी प्रकार जुरैसिक कल्प (18 करोड़ वर्ष पहलें) में पृथ्वी की जलवायु वर्तमान (Climatic Change) समय की जलवायु की तुलना में अधिक गर्म थी।
  • इयोसीन युग (6 करोड़ वर्ष पहले) शीतोष्ण वनस्पति ध्रुवीय भागों के अधिक निकट थी। इसी प्रकार 60° अक्षांश रेखा पर प्रवालों के अवशेष प्रदर्शित करते हैं कि इओसीन काल में इन अक्षांशीय क्षेत्रों के महासागरीय जल का तापमान वर्तमान तापमान से 10°F अधिक था।
  • प्लीस्टोसीन अर्थात् अत्यंत नूतन युग (30 लाख साल पहले) में हिमनदियों का विस्तार हुआ। वर्तमान युग की हिम की टोपियां इस समय के हिम के अवशेष हैं।
  • विगत 20 लाख वर्षों में कई ठंडी और गर्म जलवायु आईं और गईं।
  • उत्तरी गोलार्द्ध में अंतिम हिमनदन (Glaciation) का अंतिम दौर आज से 18,000 वर्ष पहले अपनी चरम सीमा पर था। उस समय समुद्रतल आज की तुलना में 85 मीटर नीचे था।

ऐतिहासिक काल (Historical Period)

  • अब से 16,000 वर्ष पूर्व हिम ने पिघलना शुरु किया। तापमान ऊंचे और वर्षा पर्याप्त होने लगी। 7,000 से 10,000 साल पहले जलवायु आज की तुलना में गर्म थी। आज जहां टुंड्रा प्रदेश है, वहां उस समय वन उगे हुए थे।
  • यूरोप अनेक बार उष्ण, आर्द्र, शीत एवं शुष्क युगों से गुज़रा है। इन्हीं शुष्क दशाओं के कारण 10वीं और 11वीं शताब्दी में वाइकिंग कबीले ग्रीनलैंड में जा बसे थे।
  • भारत में भी आर्द्र और शुष्क युग आते जाते रहे हैं। पुरातत्व खोजें बताती हैं कि ईसा से लगभग 8000 साल पहले राजस्थान मरुस्थल की जलवायु आर्द्र एवं शीतल (Humid and Cool) थी। ईसा से 3,000 से 1700 वर्ष पूर्व यहां खूब वर्षा होती थी। लगभग 2,000 से 1,700 वर्ष ईसा पूर्व यह क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति का केंद्र था। उसके बाद से यहां शुष्क दशाएं गहन होती गईं।
  • सन् 1450 से 1850 के बीच की अवधि को लघु हिमयुग (Little Ice Age) कहा जाता है। इस युग में आल्पस पर्वतों पर हिमनदियों का विस्तार हुआ।
  • औद्योगिक क्रांति (सन् 1780) के बाद मानव की बढ़ती गतिविधियों के कारण ग्रीन हाऊस गैसों के सांद्रण से वायुमंडल का तापमान बढ़ने लगा है।

अभिनव पूर्व काल (Recent Past)

जलवायु परिवर्तन (Climatic Change) आज भी हो रहे हैं। पिछली (20वीं) शताब्दी के 90 के दशक में कुछ चरम (Extreme) मौसमी घटनाएं घटित हुई हैं।

  • इसी दशक में शताब्दी का सबसे गर्म तापमान व विश्व की भयंकर बाढ़ों को दर्ज किया गया।
  • 1930 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका के बृहद् मैदान के दक्षिण-पश्चिमी भाग में जिसे ‘धूल का कटोरा’ (Dust Bowl) कहा जाता है, भीषण सूखा पड़ा।
  • सहारा मरुस्थल के दक्षिण में स्थित साहेल प्रदेश में 1967 से 1977 के दौरान आया विनाशकारी सूखा जलवायु परिवर्तन का ही सूचक था।
  • 1885 से 1940 तक विश्व के तापमान में वृद्धि की प्रवृत्ति पाई गई है लेकिन 1940 के बाद तापमान में वृद्धि की दर घटी है।
Also Read  तापमान का ऊर्ध्वाधर वितरण (Vertical Distribution of Temperature)

जलवायु परिवर्तन के प्रमाण (Evidence For Climate Change)

भू-वैज्ञानिक अतीत काल में हुए जलवायु परिवर्तन (Climatic Change) के प्रमाण

  • अवसादी चट्टानों में प्राणियों और वनस्पति के जीवाश्म 
  • गहरे महासागरों के अवसादों से प्राप्त प्राणियों और वनस्पति के जीवाश्म 
  • वृक्षों के वलय (Rings) 
  • झीलों के अवसाद 
  • चट्टानों की प्रकृति 
  • हिमनदियों के आकार में परिवर्तन 
  • समुद्रों तथा झीलों के जल-स्तर में परिवर्तन
  • भू-आकारों के प्रमाण 

ऐतिहासिक काल एवं अभिनव पूर्व काल में हुए जलवायु परिवर्तन (Climatic Change) के प्रमाण

  • अभिलेखों में जलवायु परिवर्तन के उल्लेख 
  • पुराने पुस्तकालयों में मौसम संबंधी जानकारी
  • फ़सलों के बोने तथा काटने के मौसम
  • सूखे व बाढ़ से जुड़ी लोक कथाएं एवं वैज्ञानिक आंकड़े 
  • पत्तनों (Ports) के जल का जम जाना
  • सूखी झीलें, नदियाँ व नहरें
  • पुरानी बस्तियों के खंडहर 
  • लोगों का बड़े पैमाने का प्रवास 
  • लुप्त वन तथा अतीत में वनस्पति का वितरण

जलवायु परिवर्तन के कारण (Causes of Climatic Change)

जलवायु परिवर्तन के अनेक कारण हैं जिन्हें दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है

  • खगोलीय कारण (Astronomical Causes)
  • पार्थिव कारण (Terrestrial Causes)

जलवायु परिवर्तन के खगोलीय कारण (Astronomical Causes)

सौर कलंक (Sunspots)

सौर कलंक सूर्य पर काले धब्बे होते हैं, जो एक चक्रीय ढंग से घटते-बढ़ते रहते हैं। सूर्य के सौर कलंकों (Sun Spots) की संख्या में प्रत्येक 11 वर्षों बाद परिवर्तन आता रहता है। सौर कलंकों की संख्या बढ़ना अधिक उष्ण व तर (Cooler and Wetter) दशाओं तथा तूफानों की संख्या के बढ़ने से जुड़ा है, जबकि सौर कलंकों की संख्या में कमी, गर्म तथा शुष्क (Warm and Drier) दशाओं से संबंधित होती है। 

यही नहीं सौर कलंकों की संख्या का प्रभाव सूर्य से निष्कासित होने वाली पराबैंगनी किरणों का भी पड़ता है। इन्हीं पराबैंगनी किरणों की मात्रा में वायुमंडल में ओज़ोन गैस की मात्रा निर्धारित होती है। वायुमंडल में ओज़ोन गैस की मात्रा भू-मंडल पर ताप संतुलन को प्रभावित करती है। यद्यपि ये खोजें आंकड़ों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।

पृथ्वी की कक्षा की उत्केंद्रियता (Eccentricity) में परिवर्तन

पृथ्वी की उत्केंद्रियता में लगभग 92 हज़ार वर्षों में परिवर्तन आ जाता है अर्थात् सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के परिक्रमण पथ की आकृति कभी अंडाकार तो कभी गोलाकार हो जाती है। उदाहरणतः वर्तमान में पृथ्वी की सूर्य के निकटतम रहने की स्थिति-उपसौर (Perihelion) जनवरी में आती है। यह उपसौर स्थिति 50 हज़ार वर्ष बाद जुलाई में आने लगेगी। इसका परिणाम्र यह होगा कि आगामी 50 हज़ार वर्षों में उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्मकाल अधिक गर्म व शीतकाल अधिक ठंडा होता जाएगा।

पृथ्वी की काल्पनिक धुरी के कोण में परिवर्तन

सूर्य की परिक्रमा करते समय पृथ्वी की धुरी (Axes) अपने कक्ष-पथ के साथ एक कोण बनाती है। वर्तमान युग में यह कोण 23 डिग्री का है, लेकिन प्रत्येक 41-42 हज़ार वर्षों के बाद पृथ्वी की धुरी के कोण में 1.5 डिग्री का अंतर आ जाता है। कभी यह झुकाव 22° तो कभी 24° हो जाता है। पृथ्वी के झुकाव में परिवर्तन से मौसमी दशाओं व तापमान में तो अंतर होंगे ही साथ ही भौगोलिक पेटियों की भिन्नताएँ कम या विलुप्त हो जाएँगी।

विषुव का पुरस्सरण (Precession)

वर्तमान में चार मौसमी दिवसों की स्थितियां इस प्रकार हैं- 21 मार्च – बसंत विषुव, 23 सितंबर – शरद विषुव, 21 जून – कर्क संक्रांति तथा 22 दिसंबर – मकर संक्रांति। प्रत्येक 22 हज़ार वर्षों में इन स्थितियों में परिवर्तन आता है जिसका सीधा प्रभाव जलवायु पर पड़ता है।

मिलैंकोविच (Milankovitch) दोलन क्या है ?

यह एक खगोलीय सिद्धांत है जो पृथ्वी के कक्षीय लक्षणों में बदलाव के चक्रों, पृथ्वी की डगमगाहट (Wobbling) तथा पृथ्वी के अक्षीय झुकावों (Axial Tilt) में परिवर्तनों का अनुमान लगाता है। ये सभी कारक सूर्यातप में परिवर्तन ला देते हैं।

सौर विकिरण की प्राप्ति में भिन्नता

पृथ्वी पर ऊर्जा का एकमात्र स्रोत सूर्य है। सूर्य में होने वाली उथल-पुथल से पृथ्वी को मिलने वाली ऊर्जा में अंतर आ जाता है। सूर्यातप की मात्रा में परिवर्तन वायुमंडल द्वारा सौर विकिरण के अवशोषण की मात्रा में परिवर्तन से भी हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन के पार्थिव कारण (Terrestrial Causes)

महाद्वीपीय विस्थापन (Continental drift)

भू-गर्भिक काल में महाद्वीपों के विखंडन व विभिन्न दिशाओं में संचलन के कारण विभिन्न भू-खंडों में जलवायु परिवर्तन (Climatic Change) हुए हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों के समीप स्थित भू-भागों का भूमध्य रेखा के निकट आने पर जलवायु परिवर्तन होना एक सामान्य प्रक्रिया है। दक्षिणी भारत में हिमनदों के चिह्नों तथा अंटाकर्टिका में कोयले का मिलना इस जलवायु । परिवर्तन के प्रमुख प्रमाण हैं।

पर्वत निर्माण-प्रक्रिया (Mountain building process)

यह जलवायु को दो प्रकार से प्रभावित करती है

  • पर्वतों के उत्थान तथा घिसकर उनके नीचे हो जाने से स्थलाकृतियों की व्यवस्था भंग हो जाती है। इसका प्रभाव पवन प्रवाह, सूर्यातप तथा मौसमी तत्त्वों; जैसे तापमान एवं वर्षा के वितरण पर पड़ता है।
  • पर्वत निर्माण की प्रक्रिया से ज्वालामुखी उद्गार की संभावनाएँ प्रबल हो जाती हैं। ज्वालामुखी उद्गार से भारी मात्रा में वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें और जलवाष्प विशेष रूप से एरोसोल निष्कासित होते हैं। ये ऐरोसोल लंबे समय तक वायुमंडल में विद्यमान रहते हैं और पृथ्वी की सतह पर पहुंचने वाले सौर्थिक विकिरण को कम कर देते हैं। हाल ही में पिनाटोबा तथा एल० सियोल ज्वालामुखी उद्भेदनों के बाद पृथ्वी का औसत तापमान कुछ हद तक गिर गया है। इसके अतिरिक्त ज्वालामुखी उद्भेदन से निष्कासित सामग्री से वायुमंडल की पारदर्शिता (Transparency) प्रभावित होती है, जिसका सीधा प्रभाव प्रवेशी सौर्य विकिरण तथा पार्थिव विकिरण पर पड़ता है। ये सभी प्रक्रियाएं पृथ्वी के ऊष्मा संतुलन (Heat Balance) को भंग कर जलवायु परिवर्तन की भूमिका तैयार करती हैं।
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मनुष्य के क्रिया-कलाप (Human activities)

मनुष्य अपनी विकासात्मक गतिविधियों से हरित गृह गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, ओज़ोन, जलवाष्प) की मात्रा वायुमंडल में बढ़ाता रहता है। वायुमंडल में इन अवयवों के प्राकृतिक संकेंद्रण में भिन्नता आने से भू-मंडलीय ऊष्मा संतुलन प्रभावित होता है। इससे वायुमंडल की सामान्य प्रणाली, जिस पर जलवायु भी निर्भर करती है, प्रभावित होती है।

जलमंडलीय प्रक्रियाएं (Hydrospheric processes)

महासागरों के जलस्तर के उठने और गिरने से जलवायु में परिवर्तन हुए हैं।

वायुमंडलीय प्रक्रियाएं (Atmospheric processes)

समय के साथ वायुमंडल संघटन अर्थात् विभिन्न गैसों व धूल कणों का अनुपात भी बदलता रहता है। इससे भी पृथ्वी पर प्राप्त सूर्यातप की मात्रा बदलती है और अंततः जलवायु परिवर्तन होता है।

जलवायु परिवर्तन में मानव की भूमिका (Role of Humans in Climate Change)

मानव के पूरे इतिहास में उसकी आर्थिक क्रियाएँ, जीवन शैली और विकसित प्रौद्योगिकी जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार रही हैं।

आखेट एवं संग्रहण (Hunting and gathering)

आरम्भ में, मनुष्य ने आखेट एवं संग्रहण का व्यवसाय शुरू किया। आखेट को आसान और भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिए उसने आग का प्रयोग करना शुरू किया। इन सभी प्रक्रियाओं से वनों का विनाश हुआ और परिणामस्वरूप सवाना, प्रेयरी और स्टेपी जैसे घास के मैदानों का उदय हुआ।

कृषि भूमि का विकास (Development of agricultural land)

कृषि भूमि के विकास के लिए बड़े पैमाने पर वनों को साफ किया गया। वनों के विनाश से कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ गई तथा ऑक्सीजन की मात्रा घट गई। कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस पृथ्वी से परावर्तित पार्थिव विकिरण के लिए पारदर्शी नहीं होती। इससे तापमान बढ़ता है और जलवायु परिवर्तन होता है। वनों के विनाश व तापमान बढ़ने से मरुस्थलीकरण बढ़ता है और जलवायु शुष्क होती है।

प्रौद्योगिकी (Technology)

स्टीम इन्जन के आविष्कार से इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति आई। परिणामस्वरूप विश्व में बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अतिशोषण होने लगा इससे अनेक प्रकार की गैसों का उत्सर्जन हुआ और जलवायु में परिवर्तन (Climatic Change) होने लगा।

आधुनिक जीवन-शैली (Modern life style)

संसाधनों की अविचारित लूट, नगरीकरण और औद्योगीकरण आधुनिक जीवन-शैली की देन हैं। इस जीवन-शैली से जलवायु में बदलाव आया है। भूमण्डलीय जलवायु भूतल पर प्राप्त होने वाली सौर विकिरण तथा भूतल से परावर्तित होने वाली पार्थिव ऊर्जा पर निर्भर करती है। परावर्तित ऊर्जा सम्बन्धित धरातल या भूमि उपयोग के एल्बीडो (Albedo) पर निर्भर करती है। भूमि उपयोग बदलने से एल्बीडो की मात्रा में परिवर्तन आता है।

जलवायु परिवर्तन के परिणाम (Consequences of Climate Change)

जलवायु परिवर्तन के परिणाम वर्तमान और दूरगामी दोनों हैं जिनका हमारे जीवन पर गहरा असर पड़ सकता है।

बर्फ का पिघलना (Melting of Snow)

तापमान के बढ़ने से हिमाच्छादित भागों में तापमान हिमांक से ऊपर हो गया है और बड़े पैमाने पर बर्फ के पिघलने का काम शुरु हो गया है।

समुद्र तल का ऊपर उठना (Rise in the Sea Level)

बर्फ पिघलने से प्राप्त जल नदियों के माध्यम से समुद्र में गिरता है और समुद्र का तल ऊपर उठने लगता है। चित्र 8.3 से पता चलता है कि आज से 17.5 हजार साल पहले समुद्र का तल वर्तमान तल की तुलना में 99 मीटर अर्थात् लगभग 297 फुट नीचा था। अनुमान है कि सन् 2000 की तुलना में सन् 2100 में समुद्र तल 30 से 43 सें०मी० ऊपर उठ जाएगा। सन् 2300 में, यह समुद्रतल अब की अपेक्षा 30 से 80 सें०मी० ऊपर उठ जाएगा।

Sea Level Rise

समुद्र तल के ऊपर उठने से निम्नलिखित दूरगामी परिणाम हो सकते हैं-

  • समुद्री पुलिन, बन्दरगाहें, तटीय नगर इत्यादि समुद्री जल में डूब जाएँगे।
  • पत्तनों के जलमग्न हो जाने से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को नुकसान होगा।
  • विश्व की लगभग आधी जनसंख्या समुद्री तटों पर रहती है। समुद्र तल ऊपर उठने से उन्हें विस्थापित होना पड़ेगा।
  • समुद्र तट से आगे बढ़ने से कृषि क्षेत्रों में समुद्र का खारा जल घुस जाएगा और छोटे-मोटे लाखों द्वीप समुद्र में समा जाएँगे।
  • यदि समुद्र तल 30 से 50 सें०मी० ऊपर उठ गया तो लगभग 1 लाख कि०मी० तट प्रभावित होगा। तब सोचिए कि अब तक हुए समस्त आर्थिक व सांस्कृतिक विकास का क्या होगा।
Estimated Global Changes in Sea Level Rise

वायुमण्डलीय परिसंचरण में परिवर्तन (Change in Atmospheric Circulation)

भूमण्डलीय ऊष्मन से कुछ शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के निम्न अक्षांशों में उष्ण कटिबन्धीय जलवायु का विस्तार हो जाएगा। परिणामस्वरूप उपोष्ण उच्च दाब तथा उपध्रुवीय निम्न दाब की पेटियाँ भूमध्य रेखा से दूर ध्रुवों की ओर खिसक जाएँगी। इससे सन्मार्गी पवनों के प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि तथा ध्रुवीय पवनों के प्रभाव क्षेत्र में कमी हो जाएगी।

Also Read  वायुमंडल की संरचना (Structure of Atmosphere)

महासागरीय धाराओं में परिवर्तन (Change in Ocean Currents)

जलवायु में परिवर्तन(Climatic Change) के साथ ही महासागरीय जल के तापमान, लवणता, घनत्व आदि लक्षणों में परिवर्तन हो जाएगा और महासागरीय धाराओं की दिशा, गति तथा आकार भी प्रभावित होंगे। धाराओं के प्रवाह चक्र में भी परिवर्तन होगा और ऊष्मा के स्थानान्तरण की प्रक्रिया में भी बाधा आएगी।

अंतःउष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र में परिवर्तन (Change in ITCZ)

अंतःउष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र निम्न भार का वह क्षेत्र है जहाँ भूमध्य रेखा के पास उत्तर व दक्षिण से पवनें ‘ आकर आपस में मिलती हैं। ऋतु परिवर्तन के अनुसार यह ITCZ क्षेत्र जुलाई में उत्तर दिशा की ओर व जनवरी में दक्षिण दिशा की ओर शिफ्ट हो जाता है। यह शिफ्टिंग 5° उत्तरी व 5° दक्षिणी अक्षांशों तक ही सीमित रहती है। भूमण्डलीय तापन से इस क्षेत्र की शिफ्टिंग अधिक अक्षांशों तक हो जाएगी और इसका भारत की मानसून पवनों सहित उष्ण कटिबन्धीय जलवायु पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।

वर्षण के प्रारूप में परिवर्तन (Change in Patterns of Precipitation)

भूमंडलीय ऊष्मन से उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों की अपेक्षा ध्रुवीय क्षेत्रों के तापमान में अधिक वृद्धि होगी जिससे वर्षा की पेटियां ध्रुवों की ओर विस्थापित हो जाएंगी। वर्षा की। अवधि की बजाय वर्षा की गहनता अथवा तीव्रता में अधिक वृद्धि होगी जिससे शीतोष्ण कटिबंध में भी अधिक तूफान तथा बाढ़ें आने की संभावना बढ़ सकती है।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की संख्या एवं तीव्रता में वृद्धि (Increase in number and intensity of Tropical Cyclones)

महाद्वीपों पर स्थित बर्फ के पिघलने से महासागरों में जल अधिक होगा और महासागरों के आकार में वृद्धि होगी। विस्तृत जल-तल तथा उच्च तापमान के कारण वाष्पीकरण अधिक होगा। अधिक आर्द्रता तथा गुप्त ऊष्मा के कारण उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों में वृद्धि होगी और वे पहल से अधिक शक्तिशाली बन जाएंगे। वर्षा की तीव्रता तथा उसकी परिवर्तनशीलता में वृद्धि होगी। मृदा अपरदन से कृषि उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। बाढ़ और सूखे का प्रकोप बढ़ेगा और मरुस्थलीकरण का विस्तार होगा।

उष्ण कटिबंधीय बीमारियों का फैलाव (Spread of Tropical Diseases)

अति गर्म, अति ठंडी, अति आर्द्र अथवा अति शुष्क परिस्थितियाँ कीटाणुओं, जीवाणुओं, वायरस आदि को जन्म देती हैं जिनसे बीमारियां फैलती हैं। ये बीमारियां उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में अधिक फैलती हैं क्योंकि इन इलाकों में तापमान अधिक होता है। उष्ण एवं आर्द्र मौसम में फैलने वाली बीमारियों में मलेरिया, हैजा, पीलिया, प्लेग, डेंगू आदि प्रमुख हैं। यदि वायुमंडल का तापमान 2° से० बढ़ जाए तो मलेरिया से प्रभावित क्षेत्र विश्व के वर्तमान 42 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो जाएगा।

वनस्पति पेटियों में परिवर्तन (Change in Vegetation Belts)

वनस्पति पेटियां, जलवायु पेटियों का अनुसरण करती हैं। उदाहरणतया उष्ण कटिबन्ध में उष्ण जलवायु पाई जाती है जिस कारण से वहाँ पर चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार अथवा पतझड़ के वन उगते हैं। शीतोष्ण कटिबन्ध में मुख्यतः कोणधारी वन पाए जाते हैं। तापमान में वृद्धि तथा वर्षा के प्रारूप में परिवर्तन होने से इन वनस्पति पेटियों के अक्षांशीय विस्तार में वृद्धि होगी। 

उदाहरणतया 21वीं शताब्दी के अंत तक उत्तरी गोलार्द्ध की कोणधारी वन पेटी लगभग 200 किलोमीटर उत्तर की ओर विस्तृत हो जाएगी। इसी प्रकार सवाना, स्टेपी एवं प्रेयरी घास के मैदान तथा शीतोष्ण कटिबंधीय वन क्षेत्र भी उत्तर की ओर विस्तृत हो जाएंगे।

मृदा में आर्द्रता की कमी (Reduction of moisture in the soil)

तापमान में वृद्धि होने से वाष्पीकरण में भी वृद्धि होती है जिससे मृदा की आर्द्रता में कमी आती है। इससे बहुत से कृषि क्षेत्र सूख कर बंजर हो जाने का भय है और कृषि उत्पादन पर गहरा प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

जल की उपलब्धता में परिवर्तन (Change in the availability of Water)

जलवायु परिवर्तन (Climatic Change) से वर्षा की तीव्रता अधिक होगी और वर्षा तेज बौछारों के रूप में होगी। इससे जल के संग्रहण में कठिनाई आएगी क्योंकि तेज वर्षा से बाढ़ें आएंगी और वर्षा का बहुत-सा जल व्यर्थ ही बह जाएगा। इसके अतिरिक्त जल के तेज बहाव के कारण पर्याप्त जल भूमि में नहीं रिसेगा और भूजल के संचरण में कमी आएगी।

कृषि के प्रारूप में परिवर्तन (Change in pattern of Agriculture)

प्रत्येक फसल के लिए एक निश्चित तापमान तथा वर्षा की मात्रा की आवश्यकता होती है। वायुमंडल में कार्बन-डाईऑक्साइड में वृद्धि होने का एक लाभ यह होगा कि इससे पौधों को प्रकाश-संश्लेषण में सहायता मिलेगी और गेहूँ,चावल, सोयाबीन जैसी फसलों में 30 से 100 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। 

तापमान में वृद्धि होने से उत्तरी गोलार्द्ध में कृषि योग्य भूमि की सीमा उत्तर की ओर स्थानांतरित हो जाएगी और साइबेरिया, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान आदि शीतोष्ण कटिबन्धीय इलाकों में कृषि का प्रारूप परिवर्तित हो जाएगा। इन क्षेत्रों की जलवायु गेहूँ, चुकन्दर, चारे की फसलों, ओट आदि के लिए अनुकूल हो जाएगी।

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