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लिंगानुपात के प्रकार (Types of Sex Ratio)

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लिंगानुपात क्या है और इसके प्रकार | Linganupat Kya Hai | Types of Sex Ratio

इस लेख में हम समझेंगे कि लिंगानुपात क्या है (linganupat kya hai) और इसके प्रकार (Types of Sex Ratio), जिसमें प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक लिंगानुपात व इनके निर्धारक तत्वों की चर्चा करेंगे।

लिंगानुपात क्या है? Linganupat Kya Hai

इसे सरल शब्दों में समझें तो यह किसी जनसंख्या में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या के अनुपात को दर्शाता है। यह सामान्यत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है:

1. प्राथमिक लिंगानुपात (Primary Sex Ratio) | Prathamik Linganupat

2. द्वितीयक लिंगानुपात (Secondary Sex Ratio) | Dwitiyik Linganupat

3. तृतीयक लिंगानुपात (Tertiary Sex Ratio) | Tritiyak Linganupat

प्राथमिक लिंगानुपात (Primary Sex Ratio) | Prathamik Linganupat

प्राथमिक लिंगानुपात गर्भधारण के समय के लिंगानुपात को दर्शाता है। यदि हम आनुवंशिक विज्ञान (Genetics) के सिद्धान्त को माने तो गर्भधारण के समय प्रत्याशित लिंगानुपात 1:1 के अनुपात में नहीं होता है। बल्कि स्त्री भ्रूण (female fetus) की तुलना में पुरुष भ्रूण (male fetus) की अधिकता होती है। अर्थात् गर्भ धारण करते समय लडकियों की बजाए लड़कों की संख्या अधिक होती है। आंकड़ों के अभाव में यह तथ्य या सत्य अनुमानों पर ही आधारित कहा जा सकता है। 

आनुवंशिक विज्ञानियों (Geneticists) के अनुमानों के अनुसार गर्भ धारण के समय प्रति 100 स्त्री भ्रूणों पर पुरुष भ्रूणों की संख्या 107 से लेकर 170 तक देखी जा सकती है। प्राथमिक लिंगानुपात सामान्य रूप में 125 से लेकर 135 पुरुष प्रति 100 स्त्री होने का अनुमान लगाया गया है। लेकिन जन्म के पहले ही पुरुष भ्रूण स्त्री भ्रूण (female fetus) की तुलना में अधिक नष्ट हो जाते हैं जिससे इनका अनुपात उतना अधिक नहीं रह पाता है जितना गर्भ धारण के समय रहता है। 

द्वितीयक लिंगानुपात (Secondary Sex Ratio) | Dwitiyik Linganupat

द्वितीयक लिंगानुपात जन्म के समय स्त्री और पुरुष शिशुओं के अनुपात को दर्शाता है। इसे प्राकृतिक लिंगानुपात भी कहा जाता है। सामान्य तौर पर यह देखा जाता है कि मनुष्य सहित सभी स्तनधारी प्राणियों में भी पुरुष जन्मों की संख्या स्त्री जन्मों से अधिक पाई जाती है। हालांकि द्वितीयक लिंगानुपात के कारणों की सही व्याख्या करना मुश्किल कार्य है क्योंकि इसके निर्धारित करने वाले कारक या तत्व अधिक स्पष्ट नहीं होते । 

देखा जाए तो इस लिंगानुपात के निर्धारण में दो प्रकार के कारकों या तथ्यों का प्रमुख योगदान होता है- 

(i) जैसा ऊपर बताया गया है कि प्राथमिक लिंगानुपात (गर्भधारण के समय लिंगानुपात) में पुरुष भ्रूणों  (male fetus) की अधिकता होती है जिसके कारण  जन्म के समय भी लिंगानुपात (द्वितीयक लिंगानुपात) अधिक होता है। 

(ii) गर्भ धारण के बाद  स्त्री भ्रूण (female fetus) व पुरुष भ्रूण (male fetus)  की मृत्युदर में अंतर के कारण भी प्राथमिक और द्वितीयक लिंगानुपात में भिन्नता देखने को मिलती है। कुछ का मानना है कि जन्म से पहले स्त्री भ्रूण की मृत्युदर अपेक्षाकृत् अधिक होती है लेकिन इसका कोई वैज्ञानिक आनुवंशिक प्रमाण नहीं है। 

दूसरी ओर यह भी अनुमान लगाया गया है कि गर्भकाल में पुरुष भ्रूणों की मृत्युदर स्त्री भ्रूणों की तुलना में अधिक होती है। इस कारण से जन्म के समय (द्वितीयक लिंगानुपात)  में पुरुष का अनुपात गर्भधारण के समय (प्राथमिक लिंगानुपात) की तुलना में कम हो जाता है किन्तु अभी भी वह स्त्री संख्या से अधिक रहता है। 

(iii) श्रियाक (1976) के  20वीं शदी के पाँचवें दशक के अनुमानों के आधार पर विश्व के कुछ प्रमुख देशों में जन्म के समय लिंगानुपात (द्वितीयक लिंगानुपात) के आंकड़े प्रस्तुत किए गए जिसके अनुसार भारत, मैक्सिको, बलगारिया, रूमानिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, ताइवान, जापान, ईरान, मलेशिया, फिनलैंड, आयरलैंड आदि देशों में प्रति 100 स्त्री जन्मों पर पुरुष जन्मों की संख्या 105 से ऊपर थी। 

इसी प्रकार विश्व के अधिकांश देशों में प्रति 100 स्त्रियों पर पुरुष जन्मों की संख्या 100 से अधिक होने का अनुमान है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राथमिक लिंगानुपात की भांति द्वितीयक लिंगानुपात भी 1:1 के अनुपात से भिन्न होता है और पुरुष की संख्या स्त्रियों की अपेक्षा कुछ अधिक होती है। 

तृतीयक लिंगानुपात (Tertiary Sex Ratio) | Tritiyak Linganupat

किसी जनगणना के समय जनसंख्या में जो लिंगानुपात पाया जाता है उसे तृतीयक लिंगानुपात कहा  है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि तृतीयक लिंगानुपात ही वास्तविक लिंगानुपात को दर्शाता है जिसकी गणना विश्व के विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार से की जाती है (लिंगानुपात गणना की विभिन्न विधियाँ)। इसे स्त्रियों की संख्या के संदर्भ में पुरुषों की संख्या अथवा पुरुष संख्या के संदर्भ में स्त्रियों की संख्या के रूप में प्रकट किया जाता है। 

तृतीयक लिंगानुपात की भिन्नता के लिए उत्तरदायी कारक :

(i) स्त्री एवं पुरुष जन्मों में भिन्नता 

पुरुष शिशुओं और स्त्री शिशुओं के जन्मदरों में अन्तर का तृतीयक लिंगानुपात पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव होता है। जैसा ऊपर बताया गया है कि सामान्य जन्म के समय अधिकांश देशों में नर शिशुओं की संख्या स्त्री शिशुओं के बजाए अधिक होती है और लिंगानुपात 100 से 107 पुरुष प्रति 100 स्त्री पाया जाता है। 

विभिन्न देशों व समाजों में जन्म के समय लिंगानुपात (द्वितीयक लिंगानुपात) में कुछ भिन्नताएँ भीड देखने को  मिलती हैं। उदाहरण के लिए जहाँ जन्म के पहले नर भ्रूणों की मृत्युदर अधिक होती है वहाँ द्वितीयक लिंगानुपात में नर की संख्या अधिक ऊँची नहीं हो पाती है किन्तु जिन देशों या समुदायों में जन्म के पूर्व मादा भ्रूणों की मर्त्यता अधिक होती है। वहाँ जन्म के समय लिंगानुपात में नर शिशुओं की संख्या अधिक उच्च पाई जाती है। 

(ii) स्त्री एवं पुरुष मृत्युदरों में भिन्नता 

जन्म के बाद सामाजिक-आर्थिक कारणों से पुरुषों और स्त्रियों की मृत्युदरों में अन्तर पाया जाता है जिसके कारण तृतीयक लिंगानुपात में भी अन्तर पैदा हो जाता है। देखा जाए तो जैविक दृष्टि से स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में अधिक सक्षम और सबल होती हैं जिससे उन पर बीमारियों आदि का प्रभाव पुरुषों की अपेक्षा कम पड़ता है। संभव है कि इसी वजह से जनसंख्या के प्रत्येक आयु वर्ग में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की मृत्युदर कम पायी जाती है। 

विकसित तथा विकासशील देशों की मृत्युदरों में पर्याप्त अंतर देखने को मिलता है जिसके लिए आर्थिक-सामाजिक दशाओं तथा स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं की उपलब्धता आदि का महत्वपूर्ण प्रभाव होता है। पाश्चात्य विकसित देशों में उच्च जीवन स्तर तथा स्त्री एवं पुरुष शिशुओं या बच्चों की देखभाल में समानता के साथ ही स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता के फलस्वरूप स्त्री मृत्युदर अपेक्षाकृत् निम्न है। 

इसके विपरीत विकासशील देशों में छोटी आयु में विवाह, घर तथा समाज में स्त्रियों के निम्न स्तर, कुपोषण, स्वास्थ्य एवं प्रसूति सुविधाओं की कमी के कारण मातृ मृत्युदर अधिक है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देशों के आंकड़ों से पता चलता है कि शैशवावस्था (4 वर्ष की आयु तक पुरुष शिशुओं की मृत्युदर स्त्री शिशुओं की तुलना में अधिक पायी जाती है और 4 वर्ष की आयु पर पुरुष-स्त्री अनुपात लगभग संतुलित (1:1) हो जाता है। 

इसके पश्चात् भी पुरुष मृत्युदर स्त्री मृत्युदर से अधिक रहती है जिसके परिणामस्वरूप लिंगानुपात सभी आयु वर्गों में स्त्रियों के पक्ष में पाया जाता है। यहाँ तक कि 90-95 आयु वर्ग में प्रति 100 स्त्रियों पर पुरुषों की संख्या लगभग 50 ही रह जाती है। 

भारत जैसे विकासशील देशों में सामाजिक-आर्थिक कारणों से स्त्री मृत्युदर उच्च पाई जाती है। समाज में स्त्रियों को पुरुषों से निम्न स्थान प्राप्त है जिसके कारण शैशवावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक स्त्रियों के पोषण तथा स्वास्थ्य पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है जितना पुरुषों का। पारम्परिक समाज में स्त्रियाँ प्रायः परिवार के पुरुष सदस्यों के भोजन के पश्चात् शेष पदार्थों का भोजन करती हैं। उन्हें अपने बुजुर्गों, पति, बच्चों आदि की अधिक चिन्ता होती है और वे अपने स्वास्थ्य की परवाह कम करती हैं। 

गरीबी के कारण कुपोषण भी उच्च मृत्युदर के लिए उत्तरदायी है। प्रसूत तथा स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण मातृत्व मृत्युदर काफी उच्च पायी जाती है। अधिकांश समाजों एवं समुदायों में पुरुषों को परिवार की पूँजी समझा जाता है क्योंकि वे ही धनार्जन करते हैं। स्त्रियाँ प्रायः घरेलू कार्यों को संभालती हैं और आर्थिक रूप से परिवार के पुरुष सदस्यों पिता, पति, पुत्र आदि पर आश्रित होती हैं। 

संभवतः आर्थिक निर्भरता के कारण भी स्त्रियों का स्थान समाज में निम्न पाया जाता है। अनेक देशों में पर्दा प्रथा के प्रचलन का भी स्त्रियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार अनेक विकासशील देशों में स्त्री मृत्युदर पुरुष मृत्युदर की तुलना में उच्च पायी जाती है जिससे जनसंख्या में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना में कम हो जाती है। 

(iii) चयनात्मक प्रवास 

किसी प्रदेश में लिंगानुपात के निर्धारण में प्रवास का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। जनसंख्या का प्रवास सामान्य तौर पर लिंग प्रधान एवं चयनात्मक होता है। आर्थिक कारणों विशेषकर रोजगार के उद्देश्य से होने वाले स्थानान्तरण में लिंग सम्बन्धी चयनात्मकता अधिक पाई जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, तथा कई यूरोपीय विकसित देशों में स्त्रियाँ नौकरी या धन कमाने के उद्देश्य से निकटवर्ती नगरों के लिए प्रवास करती हैं जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगानुपात पुरुषों के पक्ष में और नगरों में स्त्रियों के पक्ष में हो जाता है। 

विकासशील देशों में स्थिति इससे भिन्न है। वहाँ रोजगार की खोज में ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में पुरुष नगरों में चले जाते हैं जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में त्रियों का तथा नगरीय क्षेत्रों में पुरुषों का अनुपात बढ़ जाता है। भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश आदि दक्षिण एशियायी देशों में ग्राम्य- नगरीय प्रवास में पुरुषों की प्रधानता पाई जाती है। 

प्रायः अशिक्षित एवं अकुशल श्रमिक नगरों में या तो अल्प आय अर्जित कर पाते हैं अथवा बेरोजगार ही रह जाते हैं। आर्थिक कमजोरी तथा सामाजिक बंधनों (संयुक्त परिवार) के कारण ग्राम से नगर के लिए प्रवास करने वाले अधिकांश पुरुष अपने परिवार को ग्रामीण निवास पर हो छोड़ देते हैं। इसी प्रकार उच्च शिक्षा के लिए बड़ी संख्या में युवक ग्राम से नगर में चले जाते हैं। इन सब कारणों से नगरों में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से सामान्यतः अधिक पाई जाती है जिससे लिंगानुपात असंतुलित रहता है। 

लिंगानुपात के नियंत्रक उपरोक्त तीन प्रमुख कारकों के अलावा भी कुछ अन्य तत्व हैं जो स्त्री-पुरुष अनुपात के निर्धारण में सहायक होते हैं। कभी-कभी युद्ध, महामारी, सामाजिक प्रथाएँ, सरकारी नीतियाँ आदि भी लिंगानुपात के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। युद्ध में प्रायः पुरुष ही भाग लेते हैं जिसके कारण दीर्घकाल तक युद्ध होते रहने से सम्बन्धित देशों में पुरुषों की संख्या कम हो जाती है। 

कुछ महामारियों का प्रभाव पुरुषों पर तो कुछ का प्रभाव स्त्रियों पर अधिक हानिकारक होता है जिससे लिंगानुपात भी प्रभावित होता है। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दो दशकों में प्लेग और इन्फ्लूएन्जा महामारियों से पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की मृत्यु अधिक हुई थी जिससे स्त्रियों का अनुपात पहले की तुलना में कम हो गया था। 

ऐसे देशों में जहाँ समाज में स्त्रियों का स्तर निम्न है, पर्दा प्रथा प्रचलित है अथवा कन्याओं को परिवार पर भार समझा जाता है, वहाँ स्त्रियों के कुपोषण तथा स्वास्थ्य की अवहेलना सामान्य बात है। इससे स्त्रियों की मृत्युदर बढ़ जाती है और जनसंख्या में स्त्रियों का अनुपात कम हो जाता है।

References

  1. जनसंख्या भूगोल, डॉ. एस. डी. मौर्या
  2. जनसंख्या भूगोल, आर. सी. चांदना

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