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इस लेख में आप हेनरी जार्ज, ड्यूमां व मार्क्स के जनसंख्या के सामाजिक सिदधांतों (Social Theories of Population) के बारे में जानेंगे।
जनसंख्या के सामाजिक सिद्धान्त (Social Theories of Population)
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही अनेक समाजवादी विचारकों तथा लेखकों ने मानवीय कष्टों का कारण अधिक जनसंख्या को नहीं, आय के असमान वितरण तथा सामाजिक व्यवस्था की बुराइयों को दोषी सिद्ध करने का प्रयास किया है। माल्थस के पश्चात् जनसंख्या से सम्बन्धित अनेक सामाजिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ। इन सामाजिक सिद्धान्तों में हेनरी जार्ज (Henery George), ड्यूमां (Dumont) तथा कार्ल मार्क्स (Carl Marx) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी संक्षिप्त चर्चा अग्रिम पंक्तियों में की गयी है।
हेनरी जार्ज का बौद्धिक विकास का सिद्धान्त (Theory of Intellectual Growth of Henery George)
अमेरिकी अर्थशास्त्री तथा समाज सुधारक हेनरी जार्ज (1839-97) ने बताया कि जनसंख्या का सिद्धान्त बौद्धिक विकास के सिद्धान्त के समान है और उसी पर आधारित है। जार्ज के अनुसार जनाधिक्य का प्रमुख कारण जमींदारी प्रथा और भूमि का असमान वितरण है जिससे समाज में असन्तुलन उत्पन्न होता है। जमींदारी प्रथा में जो भूस्वामी हैं वे पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन नहीं कर पाते हैं और जो उत्पादन कर सकते हैं, उनके पास भूमि न होने के कारण उन्हें उत्पादन करने का अवसर ही नहीं मिलता।
इससे उनकी इच्छाओं का दमन होता है। उनके अनुसार यदि भूमि का वितरण उन लोगों के मध्य कर दिया जाय जो भली प्रकार से उत्पादन कर सकते हैं, तो खाद्य पदार्थों का पर्याप्त उत्पादन होने लगेगा तथा जनसंख्या की समस्या का निवारण हो जायेगा। जार्ज का कहना था कि यदि जमींदारी प्रथा समाप्त करके भूमि पर कृषकों को स्थायी अधिकार प्रदान कर दिया जाय तो निश्चय ही खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ेगा और जनसंख्या की समस्या का समाधान हो सकेगा।
स्पेन्सर की भांति जार्ज का भी विश्वास था कि जैसे-जैसे मनुष्य का बौद्धिक विकास होता है (अर्थात् जनता शिक्षित और सभ्य होती जाती है), उसकी प्रजनन क्षमता तथा प्रजनन दर दोनों में ह्रास होने की प्रवृत्ति पायी जाती है। बौद्धिक विकास के फलस्वरूप व्यक्ति अन्य कार्यों की भांति प्रजनन क्रिया में भी विवेक का प्रयोग करता है और विभिन्न संकटों से बचने के लिए जन्मदर में कमी लाता है।
उनका यह भी मत था कि मानव समाज की प्रगति में प्राकृतिक दशाएं नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था ही बाधक या सहायक होती है। अतः मनुष्य की प्रगति के लिए सामाजिक व्यवस्था में संतुलन बनाये रखना अति आवश्यक है।
बौद्धिक विकास के साथ-साथ प्रजनन दर का घटना संदेहास्पद है। इसका अनुभव स्वयं हेनरी जार्ज ने भी किया था और संभवतः इसी कारण उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Progress and Poverty’ (1879) में संतति निग्रह (birth control) के कृत्रिम साधनों के प्रयोग का सुझाव दिया था।
ड्यूमां का सामाजिक केशिकात्व सिद्धान्त (Theory of Social Capillarity of Dumont)
फ्रांसीसी विचारक असेनी ड्यूमां (1849-1902) माल्थस के सिद्धान्त के प्रबल आलोचक थे। उन्होंने मनोवैज्ञानिक-सामाजिक इच्छा (Psycho-Social desire) के आधार पर अपने सामाजिक केशिकात्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार प्रत्येक समाज में व्यक्तियों की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह सामाजिक जीवन के पदानुक्रम में प्रगति करके प्रतिष्ठा तथा उच्च स्थिति प्राप्त करे।
अपने सिद्धान्त की व्याख्या के लिए ड्यूमां ने समझाया है कि जिस प्रकार किसी तरल पदार्थ को केशिका क्रिया (केशिकात्व) के द्वारा ऊपर उठाने के लिए पतला होना चाहिए, उसी प्रकार सामाजिक पदानुक्रम के ऊपर उठने के लिए परिवार के आकार का लघु होना आवश्यक है।.
इस प्रकार जैसे-जैसे कोई व्यक्ति सामाजिक पदानुक्रम (पदसोपान) पर ऊँचाई की ओर अग्रसर होता है, उसकी सन्तानोत्पत्ति में रुचि कम होती जाती है और वह परिवार तथा समुदाय की अपेक्षा अपने स्वयं के विकास में व्यस्त हो जाता है। केशिकात्व का सिद्धान्त प्रायः विकसित समाज पर लागू होता है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति हर क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
ड्यूमां के सिद्धान्त से यह स्पष्ट होता है कि विकसित देशों तथा नगरों में प्रजनन दर का कम होना व्यक्ति में उन्नतिशील भावना के होने तथा इस हेतु प्रयत्नशील रहने का परिणाम है। इसके विपरीत विकासशील देशों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में उन्नति की चाह के कम होने के कारण वहाँ परिवार नियोजन पर कम ध्यान दिया जाता है जिसके कारण वहाँ प्रजनन दर अधिक पायी जाती है।
मार्क्स का जनसंख्या सिद्धांत (Marx’s Theory of Population)
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