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माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त (Malthusian Theory of Population) 

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माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त की पृष्ठभूमि

व्यवसाय से वकील, पादरी, इतिहासकार व अर्थशास्त्र शिक्षक के रूप में कार्य करने वाले तथा इंग्लैण्ड में जन्मे थामस राबर्ट माल्थस (Thomas Robert Malthus) ऐसे प्रथम विचारक थे जिन्होंने जनसंख्या और संसाधन सम्बन्ध पर एक व्यवस्थित सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। 

सन् 1798 में माल्थस ने ‘जनसंख्या पर निबन्ध’ जैसा कि यह समाज के भावी सुधार को प्रभावित करता है।’ तथा सन् 1803 में ‘जनसंख्या सिद्धान्त पर एक निबन्ध’ नाम से लेख प्रकाशित किए, जिसने लोगों का ध्यान वर्तमान जनसंख्या समस्या की ओर आकृष्ट किया। माल्थस को इस सिद्धान्त की प्रेरणा उस समय की  सामाजिक- आर्थिक परिस्थितियों तथा तत्कालीन लेखकों के विचारों से मिली । 

अट्ठाहरवीं शताब्दी का अंतिम दशक ऐसा था जब खाद्यान्नों के मूल्य निरन्तर बढ़ रहे थे और बेरोजगारी, निर्धनता, भुखमरी आदि फैलने लगी थी। उस समय जहां इंग्लैण्ड विभिन्न देशों से युद्ध में लगा हुआ था और देश में अकाल के कारण भुखमरी भयंकर रूप लेती जा रही थी। वहीं दूसरी ओर औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप पूँजीपतियों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था और श्रमिकों तथा निम्न वर्गीय जनसंख्या में बेरोजगारी और निर्धनता निरन्तर बढ़ती जा रही थी।

सरकारों का ध्यान देश की आर्थिक तथा सैन्य शक्ति को बढ़ाने के लिए जनसंख्या की वृद्धि का जोरदार समर्थन करने की ओर था। इस प्रकार18वीं शताब्दी के अंत तक संसाधनों की कमी से देश के लिए जनसंख्या वृद्धि घातक सिद्ध होने लगी थी। 

अत: माल्थस ने लोगों का ध्यान वर्तमान जनसंख्या समस्या की ओर खीचनें के लिए इंग्लैंड तथा विभिन्न यूरोपीय देशों का भ्रमण करके तथा आंकड़ों को एकत्रित करके, जनसंख्या सिद्धान्त को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किया। जिसे आज ‘माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त’ के नाम से जाना जाता है। माल्थस का दृष्टिकोण मानवतावादी था और उसकी सोच मानव कल्याण से जुड़ी हुई थी। 

माल्थस विभिन्न देशों की तीव्र जनसंख्या वृद्धि को देखकर चिन्तित हो उठा क्योंकि उसे मानव का भविष्य अंधकारमय प्रतीत होने लगा। अतः उसने जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने की आवश्यकता पर बल दिया और अपने जनसंख्या सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। 

माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त की मान्यताएँ

माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

  • मानव  में काम वासना यथा स्थिर होती है जिसके फलस्वरूप सन्तानोत्पत्ति की इच्छा भी स्वाभाविक होती है।
  • आर्थिक समृद्धि और सन्तानोत्पत्ति में सीधा और घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। 
  • कृषि में उत्पत्ति हास नियम (Law of Diminishing Return) क्रियाशील होता है। 
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माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त के मुख्य तथ्य

माल्थस ने उपरोक्त मान्यताओं के आधार पर अपने जनसंख्या सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। माल्थस के अनुसार, जीविका के साधनों की अपेक्षा जनसंख्या में अधिक तेज गति से वृद्धि होती है। माल्थस का मानना था कि नियंत्रण के अभाव में जनसंख्या; ज्यामितीय (गुणोत्तर) अनुपात में बढ़ती है जबकि जीवन निर्वाह क्षमता में वृद्धि अंकगणितीय (समान्तर) अनुपात से होती है। इस प्रकार जनसंख्या की वृद्धि दर निर्वाह क्षमता की वृद्धि दर से तीव्र होती है जिसके परिणामस्वरूप शीघ्र ही वह जीवन निर्वाह क्षमता की तुलना में बहुत अधिक हो जाती है। 

माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त के महत्पूर्ण बिंदु 

जनसंख्या में गुणोत्तर वृद्धि (Geometric Increase in Population) 

माल्थस के अनुसार मनुष्य में दो विपरीत लिंगों के बीच कामभाव बना रहता है और सन्तानोत्पत्ति स्वाभाविक होती है। यदि इस प्रवृत्ति (प्रजनन प्रवृत्ति) में कोई रुकावट न आए तो जनसंख्या ज्यामितीय या गुणोत्तर अनुपात (1:2:4:8:16: 32:64:128 आदि) में बढ़ती जाती है। उसके अनुसार किसी अवरोध ( प्राकृतिक या कृत्रिम) के अभाव में जनसंख्या 25 वर्ष में दो गुनी हो जाती है और 200 वर्ष में जनसंख्या में 256 गुना की वृद्धि सम्भावित है।” 

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खाद्य पदार्थों में अंक गणितीय वृद्धि (Arithmetic Increase in Food Supply)

माल्थस का मानना है कि किसी देश की जनसंख्या का आकार वहाँ उपलब्ध पदार्थों (जीवन निर्वाह के साधनों) द्वारा निर्धारित होता है। किसी मजबूत नियंत्रण के अभाव में खाद्यपदार्थों की मात्रा में वृद्धि होने पर जनसंख्या में भी वृद्धि होगी। उनके अनुसार खाद्य पदार्थों में वृद्धि अंकगणितीय अनुपात (1:2:3:4:5:6:7:8 आदि) से होती है। कृषि में “उत्पत्ति ह्रासमान नियम” लागू होता है जिससे कृषि उत्पादन में एक सीमा के पश्चात् ह्रास की प्रकृति पायी जाती है। 

जनसंख्या और खाद्य पदार्थों में असंतुलन (Disbalance)

माल्थस के अनुसार मनुष्य की खाद्य सामग्री में धीरे-धीरे अंकगणितीय क्रम (Arithmetic progression) में वृद्धि होती है और जनसंख्या में तेज गति से गुणोत्तर श्रेणी या ज्यमितीय श्रेणी (Geometrical progression) के अनुसार वृद्धि होती है। इस प्रकार खाद्य पदार्थों की वृद्धि दर और जनसंख्या की वृद्धि दर के अंतर के कारण दोनों का अन्तराल बढ़ता जाता है, जिससे जनसंख्या और जीविका के साधनों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। 

माल्थस ने निष्कर्ष निकाला था कि 200 वर्षों में खाद्य पदार्थों की आपूर्ति और जनसंख्या के मध्य 9:256 का अनुपात होगा जो 300 वर्षों में 13:4096 हो जायेगा। । इस प्रकार माल्थस का दृष्टिकोण निराशावादी है जो यह प्रतिपादित करता है कि यदि जनसंख्या की स्वाभाविक वृद्धि में अवरोध या नियंत्रण न उपस्थित हो तो जनसंख्या खाद्य पदार्थों की तुलना में अधिक तीव्रता से बढ़ जाती है जिसके परिणाम स्वरूप बेरोजगारी, निर्धनता, भुखमरी आदि कष्टकारी दशाएं उत्पन्न हो जाती हैं। 

माल्थस ने यह भी कहा था कि ‘प्रकृति की खाने की मेज सीमित अतिथियों के लिए है अतः बिना नियंत्रण के आने वालों को अवश्य ही भूखा मरना पड़ेगा।’ (The table of nature is laid for limited number of guests and those who come uninvited must starve).

Malthusian Theory of Population
जनसंख्या और खाद्य पदार्थों में संबंध

जनसंख्या नियंत्रण के उपाय

माल्थस ने बताया कि तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या प्राकृतिक (Natural) और कृत्रिम (Artificial) दोनों तरीकों से नियंत्रित हो सकती है। ये नियंत्रक जनसंख्या को जीवन-यापन के उपलब्ध संसाधनों के स्तर तक सीमित रखते हैं। 

(अ) प्राकृतिक नियंत्रण (Natural Checks)

उपलब्ध खाद्य पदार्थों की तुलना में जनसंख्या अधिक बढ़ जाने पर प्रकृति उस पर नियंत्रण लगाती है जिससे जनसंख्या घटकर पुनः जीवन निर्वाह साधनों के अनुकूल हो जाती है। महामारी, अकाल, युद्ध, बाढ़, भूकम्प आदि प्राकृतिक प्रकोप जनसंख्या को नियंत्रित करते हैं। प्राकृतिक नियंत्रण (निरोध) के द्वारा मृत्युदर बढ़ जाती है जिससे जनसंख्या में कमी आ जाती है। इस प्रकार बढ़ी हुई जनसंख्या के घट जाने पर जनसंख्या और उपलब्ध खाद्य सामग्री के मध्य लगभग संतुलन स्थापित हो जाता है। 

प्राकृतिक नियंत्रकों के क्रियाशील होने पर मानव जाति को बहुत कष्ट भुगतना पड़ता है। अतः माल्थस ने इसे कष्ट (Miseries) की संज्ञा दी थी। माल्थस के अनुसार जनसंख्या और खाद्यपूर्ति का संतुलन कुछ समय तक ही बना रहता है, क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक प्रजनन प्रवृत्ति होने के कारण जनसंख्या पुनः तीव्र गति से बढ़ने लगती है और कुछ ही वर्षों में खाद्यपूर्ति से फिर अधिक हो जाती है।

ऐसी स्थिति में प्राकृतिक नियंत्रण पुनः क्रियाशील हो उठते हैं और जनसंख्या तथा खाद्यपूर्ति में पुनः संतुलन स्थापित कराते हैं। इस प्रकार घटनाओं का यह कुचक्र चलता रहता है जिसमें फंसकर जनसंख्या को कष्ट भोगना पड़ता है। 

(ब) प्रतिबंधक या कृत्रिम नियंत्रक (Preventive or Artificial Checks)

माल्थस का मानना था कि जनसंख्या वृद्धि के प्राकृतिक नियंत्रक मानव के लिए बहुत  कष्टदायक होते हैं। अतः यदि मनुष्य निरोधक उपायों द्वारा जनसंख्या को अधिक बढ़ने से रोकने के लिए प्रयत्न करे तो प्राकृतिक प्रकोपों से होने वाले कष्टों से बचा जा सकता है। इसके लिए माल्थस ने सुझाव दिया कि प्राकृतिक प्रकोपों से उत्पन्न कष्टों से बचने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य जनसंख्या वृद्धि पर निरोधक प्रतिबंध (Preventive checks) लगाये। 

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मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसे निरोधक तरीके अपनाये जिससे ऐसी स्थिति ही उत्पन्न न होने पाये कि जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए प्रकृति को क्रियाशील होना पड़े। माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि को कम करने के लिए आत्मसंयम तथा अन्य कृत्रिम विधियों को अपनाने की सलाह दी।

प्रतिबन्धक नियंत्रक से उनका तात्पर्य आत्मसंयम, ब्रह्मचर्य का पालन, विवाह न करना या देर से विवाह करना आदि था किन्तु वे आत्म संयम (self restraint) को ही प्रमुख और प्रभावशाली मानते थे। यहां यह बताना महत्वपूर्ण है कि वे सम्भवतः धार्मिक नेता होने के कारण गर्भपात, बालहत्या आदि के विरोधी भी थे और इसे अनैतिक मानते थे।

Malthusian Theory of Population
माल्थस के सिद्धान्त का चार्ट द्वारा प्रदर्शन
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माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त की आलोचनाएँ

इस सिद्धान्त के विरोध में जो तर्क दिए जाते हैं उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं

(1) अवास्तविक मान्यताएँ

माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित  है। 

(अ) माल्थस का यह विचार कि व्यक्ति की कामवासना यथास्थिर रहती है, वास्तविक नहीं है क्योंकि आर्थिक विकास के साथ जीवन स्तर के विकास के साथ-साथ कामवासना तथा सन्तानोत्पत्ति की इच्छा प्रायः कम हो जाती है। 

(ब) माल्थस ने कामवासना और सन्तानोत्पत्ति को समान मान लिया है। जबकि दोनों में अंतर है। काम वासना एक जैविक आवश्यकता है जो अन्य जीवों की भांति मनुष्य में भी होती है, किन्तु सन्तानोत्पत्ति या प्रजननता प्रायः सामाजिक-आर्थिक तथा व्यक्तिक परिस्थितियों से नियंत्रित होती है। अतः कामवासना की इच्छा के साथ मनुष्य में सन्तानोत्पत्ति की इच्छा का होना आवश्यक नहीं है। 

(स) माल्थस ने कृषि उत्पादन में उत्पत्ति ह्रास नियम के लागू होने की कल्पना की थी लेकिन कृषि में नवीन प्रौद्योगिकी के प्रयोग से इस नियम की क्रियाशीलता को स्थगित किया जा सकता है। 

(2) काल्पनिक वृद्धि दर

जनसंख्या तथा खाद्य सामग्री की वृद्धि निश्चित गणितीय अनुपात में नहीं होती है। माल्थस के अनुसार किसी नियंत्रक के अभाव में जनसंख्या गुणोत्तर अनुपात में बढ़ती है और 25 वर्ष में दो गुनी हो जाती है। यह वास्तविकता से दूर है क्योंकि जनसंख्या की वृद्धि दर आर्थिक विकास के स्तर और प्रौद्योगिकी स्तर से नियंत्रित होती है और इसी कारण से जनसंख्या के दो गुनी होने में लगने वाली अवधि एक देश से दूसरे देश में भिन्न-भिन्न पायी जाती है।

इसी प्रकार खाद्य सामग्री की उत्पादन वृद्धि दर भी किसी निश्चित गणितीय अनुपात का अनुसरण नहीं करती है। इतिहास में किसी ऐसे देश का उदाहरण मिलना कठिन है जहाँ जनसंख्या में गुणोत्तर अनुपात से और खाद्यपूर्ति में समान्तर अनुपात से वृद्धि हुई हो। 

(3) जनसंख्या वृद्धि सदैव हानिकारक नहीं

माल्थस के मतानुसार जनसंख्या की वृद्धि राष्ट्र के लिए हानिकारक होती है, किन्तु यह सदैव सही नहीं होता है। किसी देश में जनसंख्या अनुकूलतम बिन्दु से कम होने पर जनसंख्या में होने वाली प्रत्येक वृद्धि उत्पादन को बढ़ाती है और देश के हित में होती है। 

(4) तकनीकी विकास की उपेक्षा

माल्थस ने मनुष्य की उत्पादन क्षमता और तकनीकी विकास की अवहेलना की है। जनसंख्या वृद्धि से श्रमशक्ति भी बढ़ती है जो अतिरिक्त उत्पादन में सहायक होती है। तकनीकी विकास तथा प्रशिक्षण से मनुष्य की कार्यक्षमता में वृद्धि होने से उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होती है। इस वास्तविकता पर माल्थस ने ध्यान नहीं दिया है। प्रो० कैनन के अनुसार ‘जन्म लेने वाला बच्चा खाने के लिए अपने साथ केवल मुँह ही नहीं लाता है बल्कि काम करने के लिए दो हाथ भी लाता है।’  

(5) कृत्रिम नियंत्रण (निरोध) अव्यावहारिक

जनसंख्या नियंत्रण के लिए माल्थस ने ब्रह्मचर्य पालन और आत्मसंयम को ही आवश्यक बताया है तथा जन्म नियंत्रण (संतति निग्रह) के अन्य कृत्रिम उपायों का विरोध किया है। उनके द्वारा सुझाये गये उपाय सामान्य जन के लिए कठिन तथा अव्यावहारिक हैं। पिछले 100 वर्षों में विश्व के जिन देशों में जनसंख्या वृद्धि दर कम हुई है वहाँ यह निश्चित रूप से संतति निग्रह (birth control), गर्भपात आदि कृत्रिम उपायों के प्रयोग द्वारा ही सम्भव हुआ है। 

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(6) सिद्धान्त सर्वव्यापक नहीं

माल्थस का सिद्धान्त विकसित पाश्चात्य देशों पर लागू नहीं होता है। इन देशों में कामवासना तो कम नहीं है किन्तु इन देशों में दम्पतियां अधिक सन्ताने नहीं चाहते हैं और संतति निग्रह के लिए कारगर कृत्रिम उपाय अपनाते हैं। इन देशों में मृत्युदर के साथ ही जन्मदर भी अत्यन्त नीचे गिर गयी है जिससे जनसंख्या लगभग स्थायी हो गयी है। फ्रांस जैसे कुछ देशों में संतति निग्रह के लिए कृत्रिम उपायों के अत्यधिक प्रयोग तथा स्त्रियों में लुप्त होती मातृत्व की भावना के कारण जनसंख्या हास की समस्या उत्पन्न हो गयी है। 

माल्थस के सिद्धान्त की व्यावहारिकता (महत्व)

माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त की व्यापक आलोचनाओं के होते हुए भी विश्व के अनेक देशों में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि से जनसंख्या विस्फोट (population explosion) की समस्या उत्पन्न हो गयी है जो इस सिद्धान्त की सार्थकता की पुष्टि करती है। माल्थस के सिद्धान्त में सत्य का जो अंश है, हम उसकी अवहेलना नहीं कर सकते। यद्यपि यह सिद्धान्त वर्तमान समय में पूर्ण व्यावहारिक नहीं है किन्तु निम्नलिखित कारणों से इसका महत्व आज भी अधिक है।

(1) माल्थस का कहना था कि कृत्रिम नियंत्रकों का प्रयोग न किये जाने पर जनसंख्या गुणोत्तर अनुपात (तीव्रगति) से बढ़ेगी, बिल्कुल असत्य नहीं है। पाश्चात्य देशों में जनसंख्या की वृद्धि दर में जो कमी आयी है। वह अपनाये गये कृत्रिम निरोधों का ही परिणाम है। 

(2) आर्थिक रूप से पिछड़े हुए देशों में कृत्रिम उपायों के कम अपनाए जाने के कारण जन्मदर उच्च पायी जाती है। वहाँ जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्राकृतिक प्रकोपों की अधिक आवृत्ति तथा भयंकरता से मृत्युदर भी ऊँची रहती है। इससे माल्थस का यह विचार सत्य सिद्ध होता है कि जनसंख्या और खाद्यपूर्ति में असन्तुलन होने पर प्राकृतिक नियंत्रक क्रियाशील हो उठते हैं। 

(3)अमेरिका तथा यूरोपीय देशों के लोगों पर माल्थस की चेतावनी का गहरा प्रभाव पड़ा है और सम्भवतः वह उसी का परिणाम है कि वहाँ के लोगों ने कृत्रिम उपायों का इतना अधिक प्रयोग किया है कि जनसंख्या वृद्धि अत्यन्त मन्द अथवा स्थिर हो गयी है। 

(4) माल्थस ने तीव्र जनसंख्या वृद्धि से बेरोजगारी, निर्धनता, भुखमरी, महामारी, चोरी आदि के बढ़ने की चेतावनी दी थी जो आज भी विकासशील देशों के सन्दर्भ में काफी सीमा तक सही लगती है। इन देशों में प्राकृतिक प्रकोपों के कारण प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में असामयिक मृत्यु हो जाती है। 

(5) जब किसी देश में जनसंख्या उस सीमा तक बढ़ जाती है जहाँ भूमि की गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाती है तब प्रति व्यक्ति आय में कमी के कारण निर्धनता, बेरोजगारी, भुखमरी आदि का बढ़ना स्वाभाविक है जिसका निवारण जनसंख्या में कमी के द्वारा ही हो सकता है क्योंकि भूमि को बढ़ाना सम्भव नहीं होता है। 

अतः माल्थस का सिद्धान्त पिछड़े एवं विकासशील देशों के सन्दर्भ में अधिक सही लगता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त में वास्तविकता तथा सत्य का कुछ अंश अवश्य छिपा है जिसके कारण ही वह तीव्र आलोचनाओं के बावजूद आज भी अडिग और दृढ़ बना हुआ है। इस सन्दर्भ में क्लार्क का मत भी सही है कि माल्थस के सिद्धान्त की जितनी अधिक आलोचनाएं हुई हैं उनमें उतनी ही अधिक दृढ़ता आ गयी है। मार्शल, कोसा आदि अनेक अर्थशास्त्रियों ने माल्थस के सिद्धान्त का समर्थन किया है। 

FAQs

माल्थस ने जनसंख्या सिद्धांत कब दिया?

माल्थस ने जनसंख्या सिद्धांत सन् 1798 में दिया।

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