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मर्त्यता (मृत्यु दर) के निर्धारक तत्व (Determinants of Mortality) 

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हम सब जानते हैं कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य ही होती है, परंतु अलग–2  व्यक्तियों की मृत्यु का  समय तथा उसका कारण अलग हो सकता है। मर्त्यता  (मृत्यु दर) स्थान, समय, आयु आदि के अनुसार परिवर्तनशील होती है। अध्धयन की सुविधा के लिए मर्त्यता (मृत्यु दर)  के निर्धारक तत्वों को दो प्रमुख वर्गों में विभक्त किया गया है  

1) आन्तरिक कारक (Internal factors)

आन्तरिक कारक मूल रूप से जैविक (biological) होते हैं और उनसे व्यक्ति की शारीरिक क्रियाशीलता में तेजी से होने वाले परिवर्तन के कारण जीवन शक्ति का ह्रास होने लगता है और अन्त में जीवन समाप्त हो जाता है। आन्तरिक कारकों के अंतर्गत आयु, लिंग, आनुवांशिक रोग, असाध्य शारीरिक रोग, संचरण तंत्र की बीमारियों आदि को शामिल किया जा सकता है।

2) बाह्य कारक (External factors)  

बाह्य कारक मुख्य रूप से पर्यावरण से सम्बन्धित होते हैं। पर्यावरण के बुरे प्रभावों से भी मानव की मृत्यु होती है जिनमें पर्यावरण प्रदूषण, संक्रामक रोग, तापमान में तीव्र परिवर्तन (उष्ण लहर तथा शीत लहर), बाढ़, सूखा, भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट आदि। बाह्य कारकों में प्राकृतिक कारकों के अलावा अनेक सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।

मर्त्यता  (मृत्यु दर) को प्रभावित करने वाले बाह्य कारकों में से सामाजिक-आर्थिक कारकों पर तो एक सीमा तक नियंत्रण पाया जा सकता है किन्तु जैविक तथा प्राकृतिक कारकों पर नियंत्रण करना कठिन और कभी- कभी असंभव हो जाता है। 

यहां हम किसी भी प्रदेश में मर्त्यता (मृत्यु दर) को प्रभावित करने वाले सभी कारकों (आन्तरकि व बाह्य कारक) को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित करके अध्धयन करेंगे शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता है

मर्त्यता (मृत्यु दर) के निर्धारक तत्व

(अ) जनांकिकीय कारक

(ब) सामाजिक कारक

(स) आर्थिक कारक

(द) राजनीतिक कारक

(य) प्राकृतिक कारक

जनांकिकीय कारक 

मृत्युदर को प्रभावित करने वाले जनांकिकीय कारकों में प्रमुख आयु संघटन, लिंग संघटन और नगरीकरण  हैं 

आयु संघटन

मृत्युदर को प्रभावित करने वाला सबसे अधिक  महत्त्वपूर्ण कारक आयु है। जनांकिकीय आंकड़े इस बात के  प्रमाण हैं कि जीवन के प्रथम वर्ष में मृत्युदर किसी भी अन्य आयु वर्ग से अधिक पायी जाती है। अति उच्च आयु वर्ग में भी मृत्यु दर उच्च रहती है। मृत्यु का सर्वाधिक खतरा जन्म के प्रथम महीने में होता है। इसके पश्चात् बच्चे की आयु में वृद्धि के साथ सामान्यतः मृत्युदर घटती जाती है। युवा आयु वर्ग (15-35) में मृत्यु दर न्यूनतम रहती है किन्तु प्रौढ़ वर्ग (35-39) से पुनः मृत्युदर में वृद्धि आरम्भ होती है और उच्च आयु वर्गों में क्रमशः बढ़ती जाती है। 

यही कारण है कि जिस प्रदेश में बच्चों का अनुपात अधिक होता है वहाँ मृत्युदर भी उच्च होती है। इसके विपरीत युवा जनसंख्या का अनुपात उच्च होने पर मृत्युदर कम पाई जाती है। कई बार कीटाणु, महामारियों तथा संक्रामक रोगों का सर्वाधिक प्रभाव बच्चों पर अधिक देखा गया है। इसी प्रकार कुछ जान लेवा रोग तथा बीमारियां प्रौढ़ों अथवा वृद्धों को अधिक ग्रसित करती हैं। 

लिंग संघटन

जनसंख्या के आकड़ों से यह निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के मृत्युदर में भी भिन्नता पाई जाती है। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि किसी भी आयु वर्ग में रोगों से लड़ने की क्षमता तथा जीवन संभाविता पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में अधिक होती है। विकसित देशों में पुरुष मर्त्यता (मृत्युदर) प्रायः स्त्रियों से अधिक है, जिसका कारण यह है कि पुरुषों को औद्योगिक तथा व्यावसायिक जोखिम अधिक होता है। विकसित देशों में स्त्रियों का शैक्षिक स्तर तथा जीवन स्तर ऊँचा है। 

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विकासशील देशों में यह स्थिति बिलकुल अलग होती है। यह.लडकियों के कम उम्र में ही विवाह एवं गर्भधारण करने, चिकित्सा सुविधाओं की कमी, समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति, कुपोषण तथा स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही आदि के कारण प्रजनन आयु वर्ग की स्त्रियों में मृत्यु दर अधिक पाई जाती है। पुनरुत्पादन आयु वर्ग (15-44 वर्ष) की स्त्रियों में मृत्यु का एक प्रमुख कारण प्रसव और बच्चों के जन्म से सम्बन्धित होता है। 

नगरीकरण 

मर्त्यता (मृत्युदर) को प्रभावित करने वाले जनांकिकीय कारकों में नगरीकरण का भी महत्वपूर्ण स्थान है। गाँवों व  नगरीय क्षेत्रों में लोगों के व्यवसाय, जीवन-स्तर, जीवन पद्धति, आवासीय दशाओं, चिकित्सा आदि में भित्रता के कारण दोनों क्षेत्रों की मर्त्यता (मृत्युदर) में भी अन्तर पाया जाता है। 

विकसित देशों में तो स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सुविधाएँ ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में लगभग समान रूप से मिलती हैं लेकिन नगरों में प्रदूषण तथा दुर्घटना आदि का खतरा अधिक होता है। संभवत: यही कारण है कि विकसित देशों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में नगरीय क्षेत्रों में औसत मृत्युदर अधिक है। 

विकासशील देशों में यह स्थिति अलग है। निर्धनता, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की कमी के कारण ग्रामीण मृत्यु दर, नगरीय मृत्यु दर की अपेक्षा अधिक पाई जाती है। हालांकि नगरों में पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएँ हैं किन्तु चिकित्सा एवं शिक्षा सुविधाएं, प्रति व्यक्ति आय आदि नगरों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक है जिसके कारण मृत्यु दर कम है। 

सामाजिक कारक 

मर्त्यता (मृत्युदर) को प्रभावित करने वाले सामाजिक कारकों में सामाजिक प्रथाएं, शैक्षिक स्तर, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाएं, स्वच्छता एवं आवासीय स्थिति, पोषण दशाएं आदि प्रमुख हैं।

सामाजिक प्रथाएं 

विश्व के अनल देशों तथा समाजों में कुछ ऐसी प्रथायें देखी गई हैं जो प्रत्यक्ष रूप से मृत्युदर को प्रभावित करती हैं। जैसे कुछ दशक पहले तक जापान के कुछ मानव समुदायों में जनसंख्या को कम करने के उद्देश्य से सामूहिक बाल हत्या का प्रचलन था। 

भारत में भी मध्यकाल में स्त्रियों के विवाह के समय होने वाले युद्धों से बचने के लिए अनेक नवजात कन्याओं की हत्याएं कर दी जाती थीं। आज भी समाज में स्त्री के निम्न स्थान तथा दहेज प्रथा के कारण अनेक नव विवाहिता स्त्रियों की हत्याएं कर दी जाती हैं। 

इतना ही नहीं, अल्ट्रासाउण्ड आदि आधुनिक यंत्रों से जन्म के पहले गर्भस्थ शिशु के लिंग का पता कर लिया जाता है और गर्भस्थ शिशु कन्या होने पर गर्भपात कराने की प्रवृत्ति पिछले 20-25 वर्षों में अधिक बढ़ गयी है। इस प्रकार के स्त्री भ्रूण हत्या का प्रचलन नगरों में ही अधिक है किन्तु ऐसी घटनाओं को मृत्यु दर में शामिल नहीं किया जाता है। 

शैक्षिक स्तर

अशिक्षा पिछड़े समाज की एक प्रमुख विशेषता है। अशिक्षित समाज में अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, धर्मांधता आदि होने के कारण जनता को रोगों तथा बीमारियों के फैलने के कारणों, उनसे बचाव के उपाय, स्वच्छता के महत्व, स्वास्थ्य सुविधाओं आदि की समुचित जानकारी नहीं हो पाती है और महामारियों आदि के कारण  मृत्यु दर में वृद्धि होती है। 

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चिकित्सा और स्वास्थ्य सुविधाएँ

चिकित्सा और स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएँ मृत्यु दर को प्रभावित करने वाली प्रमुख कारक हैं। विकसित देशों में जहाँ चिकित्सा की अच्छी व्यवस्था होती है और स्वास्थ्य सम्बन्धी विविध सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती हैं, वहाँ बीमारियों तथा रोगों पर नियंत्रण करने में आसानी होती है और सामान्य जन स्वास्थ्य उत्तम रहता है। इससे मृत्यु दर निम्न होती है और जीवन सम्भाविता अधिक पायी जाती है। विकासशील देशों में इन सुविधाओं के अभाव के कारण बीमारियों और महामारियों का प्रकोप अधिक रहता है जिससे मृत्युदर ऊँची पायी जाती है। 

आवासीय तथा पर्यावरणी दशाएं 

आवासीय तथा पर्यावरणी दशाएं भी मर्त्यता (मृत्युदर) को प्रभावित करती हैं। विकासशील देशों में ग्रामीण और नगरीय दोनों क्षेत्रों में आवास की गम्भीर समस्याएं पाई जाती हैं। नगरों में विकसित होने वाली मलिन बस्तियों में गंदगी के कारण मानव जीवन नारक के समान हो जाता है। इन बस्तियों का जन्म नगरों में आवासों की कमी, निर्धनता तथा दुर्व्यवस्था का ही परिणाम है। ऐसी गन्दी बस्तियों में बीमारियां तेजी से फैलती हैं जिससे मृत्यु दर में वृद्धि होती है। 

आर्थिक कारक 

आर्थिक विकास के फलस्वरूप प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है, परिवारों की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है, पोषण क्षमता बढ़ती है और जीवन स्तर तथा जनस्वास्थ्य में सुधार होता है। अतः आर्थिक समृद्धि में प्रायः मर्त्यता (मृत्युदर) में कमी देस्खने को मिलती है। गरीबी बढ़ने पर मृत्युदर में वृद्धि की प्रवृत्ति पाई जाती है। यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के होने से आज से लगभग 150 वर्ष पहले आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हुआ जिससे पोषण और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। इससे मृत्यु- दर निरन्तर घटती गयी और जो कभी 60 प्रति हजार से ऊपर थी वह घटकर आज 10 प्रति हजार के नीचे आ गयी है। 

विकासशील देशों में आर्थिक विकास प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् से बहुत मंद गति से आरम्भ हुआ और उसकी गति में उल्लेखनीय वृद्धि सन् 1950 के बाद ही आरम्भ हुई है। इससे स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार हो रहा है और मृत्यु दर धीरे-धीरे घट रही है किन्तु यह अभी भी ऊँची है। व्यक्ति या परिवार की आय का प्रभाव भोजन में पौष्टिकता की मात्रा पर पड़ता है जिससे स्वास्थ्य निर्धारित होता है। 

पौष्टिक तथा उचित मात्रा में भोजन के अभाव में कुपोषण जन्य अनेक बीमारियों से असंख्य बच्चों तथा माताओं की मृत्यु प्रति वर्ष असमय में हो जाती है। निर्धनता के कारण दवाएं तथा आवश्यक चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। इससे अल्पायु में असमय मृत्यु की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है और जीवन प्रत्याशा घट जाती है। 

राजनीतिक कारक 

किसी देश की मृत्यु दर पर सरकारी नीति, प्रयत्न आदि का प्रभाव भी देखा जा सकता है। युद्ध, सामूहिक हत्या आदि के कारण मृत्युदर में वृद्धि होती है। युद्ध में लिप्त देश में भारी संख्या में सैनिकों के मारे जाने से मृत्यु दर बढ़ जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध की अवधि में जर्मनी, फ्रांस, इटली आदि देशों में मृत्यु दर सामान्य से अधिक हो गयी थी। 

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इसी प्रकार अपराधियों को भारी संख्या में मृत्यु दण्ड देने की सरकारी नीति से भी मृत्यु दर बढ़ती है। इतना ही नहीं, विभिन्न देशों में राजनीतिक कारणों से फैले आतंकवाद के कारण प्रति वर्ष असंख्य लोग मारे जाते हैं जिससे सामान्य मृत्यु दर में वृद्धि हो जाती है। उदाहरणार्थ, श्रीलंका में 1980 के पश्चात् आरम्भ हुए आतंकवाद के फलस्वरूप अधिक नरसंहार हुआ है जिससे वहाँ मृत्यु दर निश्चित रूप से बढ़ी है। 

प्राकृतिक कारक

प्राकृतिक कारणों जैसे बाढ़, सूखा (अकाल) भूकम्प, महामारी आदि से प्रति वर्ष असंख्य जन जीवन समाप्त हो जाता है जिससे मृत्यु दर में वृद्धि होती है। नदियों के किनारे सागर के तटवर्ती भागों में बाढ़ों के आने से काफी जन-धन की क्षति होती है। वर्षा के अभाव या तापमान में तीव्र परिवर्तन हो जाने से फसलें नहीं उग पाती हैं अथवा नष्ट हो जाती हैं और खाद्यान्नों की कमी से अकाल फैल जाता है जिसका परिणाम सामूहिक मृत्यु के रूप में प्रकट होता है। 

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवर्ती दशकों में यूरोप में कई बार अकाल आये जिससे लाखों लोग असमय मृत्यु को प्राप्त हो गये। एशिया के मानसूनी प्रदेशों में मानसून की अनिश्चितता तथा अनियमितता के कारण प्रायः कभी बाढ़ तो कभी सूखा का प्रकोप होता रहता है जिससे जन-जीवन बुरी तरह प्रभावित होता है। भूकम्प प्रभावित क्षेत्रों में यदा-कदा भीषण भूकम्प के आ जाने पर भारी संख्या में लोगों की हो मृत्यु जाती है। समय-समय पर फैलने वाली संक्रामक बीमारियों तथा महामारियों (जैसे हाल ही फैली कोरोना महामारी) से असंख्य लोगों की मृत्यु हो जाती है। 

हैजा, प्लेग, चेचक, मलेरिया, इन्फ्लूएंजा, मस्तिष्क ज्वर आदि बीमारियाँ कभी-कभी व्यापक क्षेत्र में महामारी का रूप ले लेती हैं और मृत्युदर सामान्य से आशिक देखि जाती है। चौदहवीं शताब्दी के मध्य में यूरोप में भीषण प्लेग के फैलने से वहाँ की लगभग एक चौथाई जनसंख्या की असमय मृत्यु हो गयी थी। 17वीं से 19वीं शताब्दी के अंत तक यूरोप में टाइफाइड के फैलते रहने से प्रति वर्ष 10 से 15 प्रतिशत जनसंख्या की मृत्यु हो जाया करती थी। 

भारत में 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दो दशक जनसंख्या ह्रास के लिए विशेष उल्लेखनीय हैं। इस अवधि में प्लेग, हैजा, चेचक, इन्फ्लूएंजा जैसी भयानक महामारियों के समय-समय पर पूरे देश में फैल जाने से इतने अधिक लोगों की असमय मृत्यु हो जाती थी कि कितने गाँव वीरान हो जाते थे और परिवार के परिवार समाप्त हो जाते थे। 

चिकित्सा तथा स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव, अशिक्षित जनता की बचाव के प्रति अनभिज्ञता आदि कारणों से ये महामारियाँ देश के लिए अभिशाप बन गयी थीं। आज भी कभी-कभी कुछ क्षेत्रों में मियादी बुखार, मस्तिष्क ज्वर, मलेरिया आदि बीमारियों के बृहद् रूप धारण कर लेने पर बड़ी संख्या में सामूहिक मृत्यु हो जाती है।

References:

  1. जनसंख्या भूगोल, डॉ. एस. डी. मौर्या
  2. जनसंख्या भूगोल, आर. सी. चान्दना

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