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उत्तरआधुनिकता (Postmodernism)

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इस लेख के माध्यम से आप आधुनिक भूगोल में ऐतिहासिकता की प्रतिक्रिया स्वरूप उभरी उत्तरआधुनिकता (Postmodernism) विचारधारा को समझेंगे।

उत्तरआधुनिकता (Postmodernism)

मानविकीय ज्ञान, दर्शन और सामाजिक विज्ञानों व कला में आजकल उत्तरआधुनिकता का आन्दोलन चला है। उत्तरआधुनिकता आधुनिक भूगोल में ऐतिहासिकता की प्रतिक्रिया है। ऐतिहासिकवाद का ज़ोर व्यक्तियों एवं सामूहिक घटनाओं के कालक्रमानुसार वर्णन पर होता है, और यह स्थानिकता को नज़रन्दाज करता है। 

सोजा (Soja, 1989) की राय में ऐतिहासिकतावाद सामाजिक जीवन पर ऐतिहासिक सन्दर्भ की अतिवादी दृष्टि है। वह भौगोलिक अथवा स्थानिक सोच को सामाजिक सैद्धांतिक विश्लेषण के दौरान हाशिए में धकेल देता है। काल की महत्ता में ‘स्थान’ गौण रह जाता है। इससे सामाजिक-जगत् की परिवर्तनशीलता का भौगोलिक निवर्चन अस्पष्ट रह जाता है।

भूगोल में उत्तरआधुनिकता का ज़ोर सामाजिक और भौगोलिक जाँच-पड़ताल के दौरान खुलेपन पर आधारित है। इसमें कलात्मक प्रयोग व राजनीतिक सशक्तता भी शामिल हैं। इसका उद्भव स्थापत्य कला व साहित्य के सिद्धान्तों में निहित है। इसके केन्द्र बिन्दु अथवा नाभि (Core) की पहचान कठिन है। 

डियर (Dear, 1994) के अनुसार – “Postmodernity is everywhere, from literature, design, art, architecture, philosophy, mass media, clothing style, music and television. Postmodernism raises urgent questions about place, space and landscape in the production of social life.”

अर्थात् उत्तरआधुकिता सभी ओर है, वह साहित्य में, कला व डिज़ायन में, सत्यापत्य में, दर्शन और जनसंचार साधनों, पोशाक के तौर-तरीकों व संगीत, दूरदर्शन सभी में मौजूद सामाजिक जीवन को गतिवान रखने में उत्तर-आधुनिकता स्थान, क्षेत्र और दृश्य- जगत् के बारे में आवश्यक प्रश्नों को खड़ा करता है।

उत्तरआधुनिकता का समर्थन करने वालों का तर्क है कि सामाजिक व ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की रचना भिन्न-भिन्न स्थानों व प्रदेशों में भिन्न-भिन्न स्वरूपों में हुई है इसलिए ऐतिहासिक-धारा सर्वत्र समान रूप से प्रवाहित नहीं बनी है। उदाहरणवत् आजकल के उपन्यासों की संरचना अस्त-व्यस्त है, और आजकल की स्थापत्यकला मूल्यों से वंचित बन उठी है।

भूगोलवेत्ताओं ने समकालीनिकता की समस्या को बहुत पहले ही पहचाना जैसा कि डारबी (Darby) ने इंगित किया – ऐतिहासिक तथ्यों के सिलसिले को प्रस्तुत करने की अपेक्षा भौगोलिक तथ्यों के क्रमों को व्यक्त करना अधिक कठिन है। घटनाएं एक के पश्चात् दूसरी नाटकीय रूप में समयबद्ध घटित होती हैं। उनको समयबद्ध लिपिबद्ध करना सरल है, परन्तु उनको स्थान में सान्निध्य बनाना कठिन है।

भौगोलिक विवरण अनिवार्यतः कठिन क्रिया है, जबकि ऐतिहासिक वर्णन अपेक्षाकृत सरल है। डियर (1986) ने उत्तर आधुनिकतावाद को तीन घटकों में विभक्त किया है- 

(i) उत्तरआधुनिक शैली

(iii) उत्तरआधुनिक काल

(ii) उत्तरआधुनिक विधि

  1. शैली रूप में उत्तरआधुनिकतावाद साहित्य व साहित्यिक समालोचना में शैली रूप में व्यक्त है जहाँ से वह फिल्म, डिज़ायन, कला, फोटोग्राफी और स्थापत्य में फैला। इसकी सामान्य दिशा और संरचना में समरूपता व अनुरूपता का अभाव प्रवेश कर गया। स्थापत्य शैली की आलोचना उसके दिखावे में भिन्नता, रंग, डिजायन व प्रतिमा-विज्ञान के आधार पर की गई है। वह मात्र उथली व ऊपरी सतही बन शेष रही।
  2. विधि रूप में उत्तरआधुनिकता सार्वभौमिक सत्य से परहेज़ करती है, और इसके सोच में सब कुछ समाया हुआ था। इसका किसी भी अर्थ में प्रयोग होने लगा और विधि निराधार बन उठी। अतः इसका मूल्यांकन ही दुर्लभ बन गया। इससे रचना- सिद्धान्त ही छिन्न-भिन्न बन उठा और लेखन को संस्कृति, वर्ग, लिंग आदि सभी प्रभावित बनने लगे जिससे लेखक की स्थिति ही डगमगा गयी। विधि स्वयं लड़खड़ा गयी और विकल्प भी ढीले व कमज़ोर बन गए। लेखन-विधि में अस्थिरता विकसित हो गयी। मानव भूगोल में ओलसन (Olsson, 1980) जो रचना के बिखराव के प्रारम्भिक समर्थक थे, उनको नवोन्मेष के अभ्यासी के रूप में जाना जाता है। रचना की तोड़-मरोड़ वस्तुतः अस्थिर विधि का ही परिणाम है।
  3. काल-अवधि रूप में उत्तरआधुनिकतावाद का युग उसे ही माना जा सकता है जब संस्कृति सहित दार्शनिक सोच में परिवर्तन उत्पन्न हुआ। भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था और भू-राजनीति का विकास बदले स्वरुप में प्रकट बना, और विलम्बित पूंजीवादी संस्कृति प्रकट हुई जो भूतकालीन युग की संस्कृति से बिलकुल भिन्न है। 

नए युग की इस संस्कृति के अन्तर के अध्ययन की विशेषताओं में अनिश्चितता, कृत्रिम, घिसे-पिटे पुराने कुरुचिपूर्ण रंग-ढंग भरे पड़े हैं। अव्यवस्था को ही व्यवस्था मान लिया गया और मुख्य जोर दिया गया विषमता, विशिष्ट एवं अनूठे कृत्यों पर (ग्रिगरी, 1989a: 70)। 

‘न्यूयार्क टाइम्स’ से उधृत टिप्पणी की सार्थकता उत्तरआधुनिकतावाद के विषय में व्यक्त है- “The great lesson of the 20th century is that all the great truths are false.” अर्थात्, 20वीं सदी की सबसे बड़ी सीख यही है कि सभी महान् ‘सत्य’ असत्य सिद्ध हुए हैं। 

मानव भूगोल के विद्वानों ने स्थानिक-विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए आधुनिकवाद की ‘व्यवस्था’ (System) पर जोर दिया। परन्तु आनुभविक प्रेक्षणों (Empirical Observations) ने सिद्ध किया कि आधुनिकतावाद में अव्यवस्था (Disorder) के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह ऐसी अव्यवस्था है जिसमें न तो कोई लागू करने हेतु सिद्धान्त हैं, और न विश्व व्यापक सत्य। (Barnes, 1996) 

आधुनिकतावाद के आलोचकों के हाथों में दार्शनिक-सोच का ऐसा मंत्र आ गिरा जो- ‘आधुनिकतावाद को ‘अव्यवस्थाभरा जगत्’ कहने में संकोच नहीं है। हम जिस प्रकार के आधुनिक जगत् में इस समय रह रहे हैं वह नव-सैद्धांतिक अतिसंवेदनशीलता से भर उठा है, जहाँ जो कुछ भी करें, सभी सही मान लिया जाता है। क्षेत्र में व्याप्त विभिन्नताएँ भी ऐसी अव्यवस्थित बनी आधुनिकवाद में विलुप्त बन गयी हैं। (Gregory, 1989 a : 91-92)”

वस्तुतः मानव भूगोल में उत्तरआधुनिकवाद उत्तरकालीन प्रतिमान अथवा प्रकरण हैं जिनमें न तो काई सुरुचिपूर्ण सोच है और न यथार्थ। इसके समर्थकों ने वातावरणीय, नियतिवाद, आदि तंत्रों को नकार दिया। 1950 से 1980 के मध्य विकसित भौगोलिक अभिगमों का उत्तरकालीन आधुनिकवाद में कोई स्थान नहीं रहा। वे यह भी स्वीकार नहीं करते कि सामाजिक जीवन में किसी प्रकार की भूमण्डलीय सुसंगति है, और प्रतिदिन की जन-जीवन प्रणाली किसी पूर्व-शैली और मूल्यों द्वारा संचालित बनी है। 

उत्तरआधुनिकवादी ‘क्षेत्रीय’ विभिन्नताओं के सोच की ओर लौटे अवश्य हैं, परन्तु यह वापसी भिन्न प्रकार की है जिसमें ऐसे विश्व का सोच है जो अतिसंवेदनशीलता से भरा है, जहाँ न कोई नीति, न सिद्धांत और न संरचना है। वहाँ है विषमता, विशिष्टता (व्यवस्था रहित) और अनूठापन जो कुछ भी करने, सोचने और बरतने में संकोच नहीं रखते। इनके मतानुसार “… we need, to go back in parts on the question of areal differentiation, but armed with a new theoretical sensitivity towards the world in which we live and to the ways in which we live and to the ways in which we represent it.” (Gregory)

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