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प्राचीन भारत का भौतिक भूगोल (Physical Geography in Ancient India) 

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भारत के प्राचीन ग्रंथों- वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि में अनेक स्थानों पर भौतिक भूगोल से सम्बंधित विविध तथ्यों के वर्णन मिलते हैं। प्राचीन ग्रंथों में पर्वतों, मैदानों, नदियों, वनों, मरुस्थलों, झीलों, झरनों, हिमनदों, ऋतुओं आदि के भौगोलिक वर्णन किए गए हैं। इससे प्राचीन विद्वानों की प्राकृतिक तत्वों के विषय में ज्ञान, दक्षता और अभिरुचि का पता चलता है। आइए अब प्राचीन भारत में भौतिक भूगोल के वर्णित कुछ महत्वपूर्ण पक्षों पर दृष्टि डालते हैं: 

प्राचीन भारत के भौतिक भूगोल के प्रमुख पक्ष (Physical Geography in Ancient India)

पौराणिक सप्तद्वीप (Seven Land Masses of Puranas)

पुराणों में सप्तद्वीप (सात भूखण्डों) का वर्णन किया गया है। प्रत्येक द्वीप या भूखण्ड किसी महाद्वीप या महाद्वीप के बृहत् खण्ड को व्यक्त करता है। ये सातों भूखण्ड (द्वीप) मेरु पर्वत के चारों ओर कमल के फूल की पंखुड़ियों के समान फैले हुए हैं। ये सप्त द्वीप हैं- 

1. जम्बूद्वीप, 2. प्लक्ष द्वीप, 3. शाल्मली द्वीप, 4. कुश द्वीप, 5. क्रौंच द्वीप, 6. शक द्वीप और 7. पुष्कर द्वीप । यह बताना आवश्यक है कि इन भूखण्डों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों के सम्बंध में विद्वानों में काफी मतभेद पाया जाता है। इन द्वीपों का नामकरण उनसे सम्बद्ध प्रधान वृक्षों (जम्बू, प्लक्ष और शाल्मली), घास (कुश) और पर्वतों (क्रौंच और पुष्कर) के आधार पर किया गया है।

पौराणिक सप्तद्वीप (Physical Geography in Ancient India) 

पुराणों में वर्णित जम्बू द्वीप को सबसे प्रमुख और बृहत् द्वीप बताया गया है जो यूरेशिया भूखण्ड को समाहित करता है। जम्बू द्वीप के 9 उपखण्ड (वर्ष) बताए गए हैं- इलावृत्त वर्ष, केतुमाल वर्ष, भद्राश्व वर्ष, भारतवर्ष, किम्पुरुष वर्ष, हरि वर्ष, रम्यक वर्ष, हिरण्यमय वर्ष और उत्तर कुरु वर्ष । ये वर्ष पर्वत श्रेणियों द्वारा एक-दूसरे से पृथक् हैं। जम्बू द्वीप के मध्य में पर्वतों में श्रेष्ठ मेरु (सुमेर) है जिसे वर्तमान में पामीर के नाम से जाना जाता है। यहाँ से बड़ी-बड़ी पर्वत श्रृंखलाएं विभिन्न दिशाओं की ओर फैली हुई हैं। 

मेरु से संलग्र उच्चवर्ती प्रदेश इलावृत वर्ष और मेरु के पश्चिम में स्थित भूखण्ड केतुमाल वर्ष कहलाता है। मेरु के दक्षिण में भारतवर्ष, पूर्व में किम्पुरुष वर्ष (तिब्बत) और भद्राश्व वर्ष (मंगोलिया और चीन) तथा उत्तर में रम्यक वर्ष (मध्य एशिया), हिरण्यमय वर्ष (उत्तरी सिनक्यांग) और उत्तर कुरु (साइबेरिया) स्थित हैं। 

पर्वत (Mountain)

ऋग्वेद में वर्णित भारत वर्ष का विस्तार पश्चिम में वर्तमान अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में गंगा-यमुना तक और उत्तर में मेरु (पामीर) से लेकर दक्षिण में कच्छ तक था। इसमें शरण्यावत (कश्मीर), सुसोमा (झेलम नदी के पश्चिम), युजवत (गांधार) तथा सुलेमान एवं लवणश्रेणी (अफगानिस्तान) पर्वत श्रेणियों का उल्लेख मिलता है। 

पौराणिक जम्बूद्वीप के पर्वत एवं नदियाँ (Physical Geography in Ancient India) 

पुराणों में सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के पर्वतों का विवरण दिया गया है और पर्वतों को कई वगों में विभाजित किया गया है जो इस प्रकार हैं : 

1. विषकम्भ पर्वत – मेरु के चारों ओर स्थित पर्वत। 

2. वर्ष पर्वत – अधिक विस्तार (परिमंडल) वाले पर्वत जैसे हिमालय, हेमकूट आदि। 

3. केशराचल पर्वत – अंतः महाद्वीपीय पर्वत जैसे त्रिकूट। 

4. कुल पर्वत – ये पर्वतसमूह के द्योतक होते हैं। 

5. मर्यादापर्वत – देश की सीमा पर स्थित पर्वत जैसे कैलाश पर्वत। 

6. तुद्र पर्वत – इसके अंतर्गत लघु पहाड़ियां सम्मिलित हैं। 

पुराणों में वर्णित प्रमुख पर्वतों का विवरण निम्नवत है- 

1. मेरु पर्वत – विष्णु पुराण में कहा गया है कि जम्बूद्वीप सभी द्वीपों के केन्द्र में स्थित है और उसके मध्य में स्वर्णिम आभायुक्त मेरु पर्वत स्थित है जिसकी आकृति कमल के समान है। 

2. हिमवान – यह हिमालय का प्राचीन नाम है। 

3. माल्यवान – मेरु पर्वत के पश्चिम में स्थित इस पर्वत को विष्णु पुराण में माल्यवान और वायुपुराण में हंस पर्वत कहा गया है। 

4. निषध – हिन्दूकुश पर्वत का पौराणिक नाम निषध है जिसके तीन प्रमुख शिखर थे और उन पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव निवास करते थे। 

5. गंधमादन – यह मेरु पर्वत की एक श्रेणी है जिसे भागवत् पुराण में ‘मेरुमदार’ कहा गया है। 

6. हेमकूट – वर्तमान कैलाश पर्वत का पौराणिक नाम हेमकूट है। 

7. नील पर्वत दक्षिण भारत में स्थित इस पर्वत को नीलगिरि, मलयगिरि, मलयाचल आदि नामों से जाना जाता है।

पौराणिक जम्बूद्वीप का आरेखीय प्रदर्शन (एस. एम. अली के अनुसार) (Physical Geography in Ancient India) 

नदियां (Rivers)

ऋग्वेद के 10वें मंडल के 75वें सूक्त को ‘नदी सूक्त’ कहते हैं जिसके सभी मंत्रों में नदियों के वर्णन किए गए हैं। अन्य वेदों, उपनिषदों तथा आरण्यक ग्रंथों में भी अनेक नदियों के वर्णन मिलते हैं। ऋग्वेद के नदी सूक्त के पांचवें मंत्र का अर्थ है- “गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलज), परुष्णि (रावी), अस्किन (चिनाब), मरुदृधा, वितस्ता (झेलम), आर्मीकीया (व्यास) आदि नदियां उत्तम सोम से सम्बद्ध हैं।”

वेदों में आर्य लोगों के निवास प्रदेश को सप्त सैन्धव (सात नदियों का देश) कहा गया है। इसके अंतर्गत सिन्धु और उसकी सहायक नदियां सम्मिलित हैं। उस समय सिन्धु की सहायक नदियां थीं – सतलज, ब्यास, रावी, चिनाब, झेलम, दृशद्वती (घघ्घर) और सरस्वती। अंतिम दोनों नदियां बाद के युगों में सूख गई और अदृश्य हो गई। 

वेदों के पश्चात् लिए गए उपनिषदों और पुराणों में सम्पूर्ण भारत की नदियों के वर्णन मिलते हैं। इन ग्रंथों में उत्तरी भारत की सिन्धु, सतलज, राबी, चिनाब, ब्यास, झेलम, गंगा, यमुना, सरयू, गंडक, कोसी, लोहित (ब्रह्मपुत्र), सोन, चम्बल आदि और दक्षिणी भारत की महानदी, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा, कावेरी आदि नदियों की विशेषताओं तथा उनके जलग्रहण क्षेत्रों के वर्णन किए गए हैं। 

ऋतु और जलवायु (Weather and Climate)

ऋग्वेद में पाँच ऋतुओं का ही उल्लेख है किन्तु अन्य वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, पुराणों तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में 6 ऋतुओं के वर्णन मिलते हैं। ये 6 ऋतुएं हैं- ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त, शरद, शिशिर, और बसन्त । इन ग्रंथों में प्रत्येक ऋतु की वायुमंडलीय दशाओं और वनस्पतियों, कृषि तथा मानव जीवन पर पड़ने वाले उनके प्रभावों का विस्तार से वर्णन किया गया है। 

पुराणों विशेषतः वायुपुराण, शिव पुराण, स्कंद पुराण और भागवत् पुराण में धूप और वर्षा की मात्रा, मेघों के प्रकार, ग्रीष्मकालीन शुष्कता, वर्षाकालीन वर्षा और तूफान, शीतकालीन हिमपात एवं तुषारपात और शरद तथा वसन्त ऋतु के सुहावने मौसमों का विस्तृत वर्णन किया गया है। बसंत ऋतु को ‘ऋतुराज’ कहा गया है। 

महाकवि कालिदास ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘मेघदूत’ में वर्षा ऋतु के आगमन के कारण, मेघों के दस प्रकारों एवं उनकी विशेषताओं तथा वर्षा की मात्रा आदि का वर्णन किया है। उन्होंने ‘रघुवंश’ नामक ग्रंथ में भी अनेक स्थानों पर ऋतुओं का मनोहारी वर्णन किया है। बारहवीं शताब्दी में भाष्कराचार्य ने अपने ज्योतिष ग्रंच ‘सिद्धांत शिरोमणि’ में वायुमंडल की परतों की गणितीय माप दी थी।

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