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नियतिवाद या पर्यावरणवाद (Determinism or Environmentalism)

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नियतिवाद या पर्यावरणवाद (Determinism or Environmentalism) का अर्थ

नियतिवाद (Determinism) मानव भूगोल की एक प्रमुख विचारधारा है जो मानव एवं प्रकृति के सम्बन्धों की व्याख्या करती है तथा प्रकृति को सर्वशक्तिमान और सभी मानवीय क्रियाओं की नियंत्रक मानती है। इस विचारधारा के अनुसार मानव अपने पर्यावरण (प्रकृति) की विशिष्ट देन है और समस्त मानवीय क्रियाएं भौतिक दशाओं जैसे: स्थिति, उच्चावच, जलवायु, मिट्टी एवं खनिज, जलाशय, जीव-जन्तु आदि द्वारा नियंत्रित होती हैं।

भौतिक दशाओं के अनुसार ही  मानव के शारीरिक गठन, उसके भोजन, वस्त्र, घर आदि प्राथमिक आवश्यकताओं, व्यवसायों तथा सामाजिक, सांस्कृतिक क्रियाओं आदि का निर्धारण होता है। इसमें प्रकृति की प्रबलता पर बल दिया गया है और मनुष्य को प्रकृति का अनुगामी या दास सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। इस विचारधारा के समर्थक प्राकृतिक पर्यावरण को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं जिसके आधार पर इसे पर्यावरणवाद (Environmentalism) या पर्यावरणी नियतिवाद (Environmental Determinism) भी कहा जाता है।

नियतिवाद या पर्यावरणवाद (Determinism or Environmentalism) की विकास यात्रा

देखा जाए तो नियतिवादी (Determinism) विचारधारा की जड़ें बहुत पुरानी है। मानव सभ्यता के विकास प्रारभिक तथा कुछ समय तक भी जब तक मानव का वैज्ञानिक तथा तकनीकी ज्ञान बहुत कम था, मानव का जीवन तथा उसकी सभी  क्रियाओं पर प्राकृतिक तत्वों का नियंत्रण अधिक होता था। उस समय मनुष्य मुख्य रूप से प्रकृति पर ही निर्भर था। कृषि, पशुपालन, आखेट आदि आर्थिक क्रियाएं प्रकृति द्वारा पूर्णतः नियंत्रित होती थी।

मनुष्य अपने भोजन (अन्न, फल, मांस आदि), वस्त्र तथा आश्रय (निवास गृह) के लिए बहुत कुछ प्रकृति पर ही निर्भर होता था। वह विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक प्रकोपों ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प, अतिवृष्टि, बाढ़, तूफान, सूखा आदि से भभयभीत रहता था। इस प्रकार वह प्रकृति की अवहेलना करके या उसके साथ छेड़-छाड़ करके सुचारु रूप से जीवन-निर्वाह नहीं कर सकता था। 

इसीलिए प्राचीन भारतीय तथा यूनानी विचारकों ने मानव जीवन तथा मानवीय क्रियाओं पर प्रकृति (प्राकृतिक पर्यावरण) के प्रभाव को ही दर्शाया है। सम्भवः प्राकृतिक शक्तियों की प्रबलता के कारण ही प्राचीन भारतीय दार्शनिकों तथा विचारकों ने विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओं का स्वरूप प्रदान किया और उनकी पूजा-अर्चना करने के लिए प्रेरित किया। हिन्दू धर्म में सूर्य, अग्नि, वायु, जल, पत्थर, वृक्ष आदि प्राकृतिक शक्तियों की पूजा का प्रावधान है जिससे प्राकृतिक शक्तियों की प्रबलता की पुष्टि होती है।

ईसा से चार शताब्दी पहले यूनानी विचारक हिप्पोक्रेट्स (Hippocrates) ने आराम पसंद एशियाई तथा मेहनती यूरोपीय निवासियों की प्रकृति में पायी जाने वाली भिन्नता को उनके पर्यावरण की उपज बताया था। इसी प्रकार हेरोडोटस (Herodotus) ने स्पष्ट किया था कि मिस्र की सभ्यता का विकास वहाँ की उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ही सम्भव हुआ था। यूनानी सभ्यता के विकास के सम्बंध में इसी प्रकार के विचार थ्यूसीडाइइस (Thucydides) ने भी व्यक्त किया था। 

प्रसिद्ध यूनानी विचारक अरस्तू (Aristotle) ने मानव जीवन पर प्राकृतिक दशाओं के प्रभाव का उल्लेख करते हुए लिखा था कि “यूरोप के अपेक्षाकृत ठंडे देशों के निवासी बहादुर किन्तु बुद्धि एवं तकनीकी कुशलता में क्षीण होते हैं और इसके परिणामस्वरूप दूसरों की तुलना में वे अधिक लम्बे समय तक स्वतंत्र रहते हैं किन्तु वे राजनीतिक संगठन करना चाहते हैं और पड़ोसियों पर शासन करते हैं। इसके विपरीत एशिया के लोग बुद्धिमान और कुशल होते हैं किन्तु आत्मशक्ति के अभाव के कारण उनकी स्थायी दशा पराधीनता और दासता की होती है। ” मान्टेस्क्यू (Montesquieu) ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किया और मनुष्य के जीवन पर जलवायु तथा मिट्टी के प्रभावों की व्याख्या की।

यद्यपि प्राचीन काल से ही विद्वानों का प्रकृति की प्रबलता पर अटल विश्वास था किन्तु नियतिवाद (Determinism) का एक ठोस विचारधारा के रूप में वास्तविक विकास 19वीं शताब्दी में जर्मन भूगोलविदों द्वारा ही सम्भव हुआ। स्ट्रैबो, वारेनियस तथा कान्ट तक (18वीं शताब्दी) परम्परागत रूप से प्रकृति को सर्वशक्तिमान तथा मानव जीवन का नियंत्रक माना जाता था और मनुष्य के अस्तित्व को प्रकृति का उपहार माना जाता था।

किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जर्मन भूगोलवेत्ता हम्बोल्ट (Humboldt) और कार्ल रिटर (Carl Ritter) ने भौतिक पक्ष के साथ ही मनुष्य के अस्तित्व को भी स्वीकार किया। इससे नियतिवादी (Determinism) विचारधारा में एक नया मोड़ आया क्योंकि इसके पूर्ववर्ती भूगोलवेत्ता पृथ्वी के केवल भौतिक तथ्यों के अध्ययन पर ही बल देते थे। इन दोनों विद्वानों ने मनुष्य पर पर्यावरण के प्रभाव को स्वीकार करते हुए मानव क्रिया-प्रतिक्रिया की पुष्टि की किन्तु तत्कालीन नियतिवादी विचारधारा उनसे बहुत कम प्रभावित हुई।

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य (1859) में डार्विन की प्रसिद्ध पुस्तक ‘The Origin of Species’ (जातियों की उत्पत्ति) प्रकाशित हुई जिसमें डार्विन ने प्रतिपादित किया कि ‘जीव अपने को पर्यावरण के अनुकूल बनाकर जीवित रहते हैं। जो जीव अनुकूलन करने में असमर्थ होते हैं, वे थोड़े समय पश्चात् नष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार सक्षम जीवों से ही जाति का विकास होता है’। इसे प्राकृतिक चयन (Natural Selection) कहते हैं। इस पुस्तक का वैज्ञानिक जगत पर व्यापक प्रभाव हुआ और तत्कालीन भूगोलवेत्ता भी डार्विन के विचार को भौगोलिक अध्ययनों में शामिल कर लिए और मनुष्य तथा प्रकृति के सम्बंधों की अधिक वैज्ञानिक व्याख्या करने में जुट गए।

इसमें जर्मन भूगोलवेत्ता ही अग्रणी थे जिन्होंने प्राकृतिक शक्तियों की प्रबलता पर अधिक जोर दिया और प्रत्येक मानवीय पक्ष को पर्यावरण का परिणाम सिद्ध करने का प्रयास किया। उनके अनुसार मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं- भोजन, वस्त्र तथा आश्रय और शारीरिक गठन के साथ ही उसकी विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पर्व राजनीतिक क्रियाओं का निर्धारण प्रकृति (प्राकृतिक पर्यावरण) द्वारा होता है।

जर्मन जीवशास्त्री तथा दार्शनिक अर्नस्ट हैकल (A. Hackel) ने पारिस्थितिकी (Ecology) पर बल दिया और स्पष्ट किया कि मनुष्य सहित सभी जीव अपने पर्यावरण से अनुकूलन करते हैं। उन्होंने बताया कि मनुष्य भी एक प्राणी है जो पर्यावरण से प्रभावित होता है। प्राकृतिक पर्यावरण में मित्रता के परिणामस्वरूप ही भिन्न-भिन्न मानव प्रजातियों का विकास हुआ है और उनकी शारीरिक बनावट तथा रूप-रंग में भिन्नता पायी जाती है। तत्कालीन भूगोलवेत्ता डेमोलिन (1852-1907) ने लिखा है कि’ एशिया के स्टेपीज में मंगोल प्रजाति, टुंड्रा प्रदेश में एस्किमो तथा लैप्स और अफ्रीका के जंगलों में रहने वाली नीग्रो प्रजाति अपने अपने पर्यावरण के अनुकूल ही विकसित हुई है’

बकल (Buckle) ने अपनी पुस्तक ‘इंगलैंड में सभ्यता का इतिहास’ (History of Civilization in England) में लिखा है कि “जब हम मनुष्य और वाह्य संसार के मध्य सतत सम्बंध पर विचार करते हैं, यह निश्चित हो जाता है कि मानवीय क्रियाओं और भौतिक नियमों के बीच घनिष्ठ संबंध पाया जाता है। उनके अनुसार मनुष्य को जलवायु, मिट्टी तथा प्राकृतिक दृश्य आदि भौतिक दशाओं ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। एशिया तथा अफ्रीका में मानव सभ्यता का विकास उपजाऊ मिट्टी वाले प्रदेशों में तथा यूरोप में उपयुक्त शीतोष्ण जलवायु वाले प्रदेशों में हुआ है। विश्व की लगभग आधी जनसंख्या मानसून एशिया के उर्वर मैदानी भागों में निवास करती है”। इससे बकल के विचार की पुष्टि होती है।

फ्रांसीसी समाजशास्त्री फ्रेडरिक लिप्ले (Frederick Lipley) ने मानव समाज पर प्राकृतिक शक्तियों के प्रभाव की व्याख्या की और इसके लिए ‘स्थान कार्य-लोक’ (Place-Work Folk) सूत्र प्रतिपादित किया।

उनके अनुसार, पर्यावरण (स्थान) कार्य के प्रकार और कार्य की प्रकृति तथा अंशतः सामाजिक संगठन (लोक) को निर्धारित करता है।

बकल और लिप्ले के विचारों के समर्थक डिमोलिन (Demolin) ने मनुष्य की प्रत्येक क्रिया पर प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभाव को दर्शाने का प्रयास किया और नियतिवाद के विकास में योगदान दिया। उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘समाज पर्यावरण की देन है’ (Society is fashioned by environment) |

भूगोल की एक पृथक शाखा के रूप में मानव भूगोल के संस्थापक फ्रेडरिक रैटजेल (F. Ratzel) ने प्राकृतिक चयन पर आधारित विकासवाद को स्वीकार किया और प्राकृतिक पर्यावरण को प्रमुखता प्रदान की। उन्होंने जनसंख्या के वितरण के माध्यम से मानव-जीवन पर पर्यावरणीय दशाओं के प्रभाव को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने विभिन उदाहरणों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मनुष्य के रहन-सहन, उसकी आर्थिक तथा सामाजिक क्रियाएं और संस्कृति आदि पर्यावरण के अनुसार ही निर्धारित होती हैं। रैटजेल ने मानव भूगोल के अंतर्गत मानव जीवन की व्याख्या पर्यावरण के संदर्भ में प्रस्तुत की,  जिसके कारण उन्हें प्रमुख नियतिवादी माना गया है। 

प्रसिद्ध अमेरिकी भूगोलविद् कु० एलेन चर्चित सेम्पुल (E. C. Semple) ने नियतिवाद का प्रबल समर्थन किया। ये रैटजेल की शिष्या तथा उनके नियतिवादी विचारों की प्रबल समर्थक थीं। उन्होंने अपनी पुस्तक Influences of Geographic Environment को 1911 में प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने रैटजेल के विचारों को बड़े प्रभावशाली शैली में प्रस्तुत किया है। आंग्ल भाषी विश्व में रैटजेल के विचारों को पहुंचाने का श्रेय कुमारी सेम्पुल को ही जाता है।

सेम्पुल कठोर नियतिवाद की अनुयायी थीं और इस विचारधारा को अपने प्रभावशाली लेखन शैली के द्वारा उच्चतम स्तर तक पहुंचा दिया। उनकी सम्पूर्ण पुस्तक नियतिवादी विचारों से ओत-प्रोत है जिसमें रोचक उदाहरणों द्वारा मनुष्य पर प्रकृति के प्रभावों को समझाने का प्रयास किया गया है। पुस्तक के आरम्भ में ही सेम्पुल ने लिखा है-

“Man is a product of the earth’s surface, this means not merely that he is a child of the earth, dust of her dust, but that the earth has mothered him, fed him. set him tasks, directed his thoughts, confronted him with difficulties that have strengthened his body and sharpened his wits, given him his problems of irrigation and navigation and at the same time whispered hints for their solution. She has entered into his bone and tissue, into his mind and soul.”

(मनुष्य भूतल की उपज है। इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि वह पृथ्वी का बच्चा है, उसकी मिट्टी की धूल है बल्कि यह भी है कि पृथ्वी ने उसे जन्म दिया है, उसका पालन-पोषण किया है, उसके कार्य निर्धारित किया है, उसके विचारों को दिशा प्रदान की है, उसके सम्मुख कठिनाइयां उपस्थित की है। जिन्होंने उसके शरीर को शक्तिशाली और उसकी बुद्धि को तीव्र बनाया है, उसको सिंचाई और नौकायन की समस्याएं प्रदान किया है और इसके साथ ही उनके समाधान के लिए संकेत बता दिया है। वह उसकी हड्डी और ऊतक में, उसके मस्तिष्क और आत्मा में प्रवृष्ट हो गयी है। )

इतना ही नहीं, सेम्पुल ने इसके आगे लिखा है कि पर्वतों पर रहने वाले लोगों को प्रकृति ने मजबूत पैर दिये हैं जिससे वह ढालों पर चढ़ सके। समुद्र तटीय लोगों को उसने कमजोर और शिथिल बनाया है किन्तु उनके छाती और भुजाओं को खूब विकसित किया है जिससे वे अपनी नाव को संभाल सकें। इस प्रकार सेम्युल ने मनुष्य के शारीरिक गठन, कार्यकुशलता तथा उसके विविध क्रिया-कलापों को प्राकृतिक पर्यावरण का प्रतिफल सिद्ध किया है।

उनके ये विचार कट्टर नियतिवाद (Determinism) के पोषक हैं। किन्तु बाद के वर्षों में सेम्पुल की कट्टरता में कमी आ गयी थी और वे मानव के प्रभावों को भी स्वीकार करने लगी थीं। तत्कालीन परिस्थिति में सेम्पुल की विचारधारा समसामयिक थी और भूगोल जगत् पर उनके विद्वता की धाक जम गयी थी।

अमेरिकी भूगोलवेत्ता हटिंगटन (Huntington) भी नियतिवादी विचारधारा के ही समर्थक थे। वे भौतिक तत्वों में जलवायु को सर्वोपरि मानते थे। उन्होंने मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर जलवायु की अनिवार्यता पर बल दिया।

नियतिवाद या पर्यावरणवाद (Determinism or Environmentalism) की आलोचना 

मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है जो अन्य जीवों की भांति प्रकृति के पूर्ण नियंत्रण में नहीं रह सकता। इसीलिए उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक पूर्णरूप से विकसित तथा प्रचलित नियतिवादी (Determinism) विचारधारा अधिक दिनों तक कायम नहीं रह पायी। बीसवीं शताब्दी में मानव क्रियाकलापों के महत्व पर बल दिया जाने लगा। फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने नियतिवाद (Determinism) की विभिन्न आधारों पर कटु आलोचनाएं की और मानवीय शक्ति, कौशल तथा क्रिया-कलापों में आस्था व्यक्त की।

मनुष्य पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण और सक्रिय कारक है जो प्राकृतिक पर्यावरण के नियंत्रण को स्वीकार करने के लिए विवश नहीं है बल्कि उसमें इतनी बुद्धि, कौशल तथा क्षमता विद्यमान है कि उनके प्रयोग से वह प्राकृतिक दशाओं में अपनी आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है।

समान भौतिक परिस्थितियों वाले अलग-अलग प्रदेशों में मानव समुदाय का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास प्रायः समान रूप से नहीं होता है। उदाहरण के लिए सम्पूर्ण टुंड्रा प्रदेश में एक जैसी जलवायु, उच्चावच, मिट्टी आदि दशाएं पायी जाती हैं किन्तु ग्रीनलैंड के आदिवासी एस्किमो जाति यूरेशिया की सामोयद, याकूत आदि जातियों से अधिक विकसित है। भूमध्यरेखीय प्रदेशों में पूर्वी दीपसमूह सामाजिक-आर्थिक रूप से अमेजन बेसिन (द. अमेरिका) और कांगो बेसिन (अफ्रीका) की तुलना में अधिक विकसित है।

इसी प्रकार विभिन्न महाद्वीपों में स्थित शीतोष्ण घास के मैदानों की भौतिक दशाओं में अधिक अंतर नहीं है किन्तु उनके मानव-जीवन में उल्लेखनीय भिन्नता पाई जाती है। मनुष्य पर्यावरणी दशाओं से प्रभावित तो होता है किन्तु अपनी शक्ति तथा कौशल से आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन भी करता है। इस प्रकार मनुष्य और प्रकृति के मध्य क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है जो इतनी जटिल होती है. कि यह तय कर पाना अत्यंत कठिन हो जाता है कि एक का प्रभाव कहाँ समाप्त होता है और दूसरे का प्रभाव कहाँ से आरम्भ होता है।

आज विश्व का जो आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक स्वरूप विद्यमान है वह केवल प्राकृतिक पर्यावरण का ही परिणाम नहीं है बल्कि उसमें मानव का योगदान अधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य ने विभिन प्रकार की कृषि फसलों के बीजों, पौधों, पशुओं आदि को एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में ले जाकर उन्हें वहाँ विकसित किया है। उसने अपने वैज्ञानिक तथा तकनीकी ज्ञान से अन्यान्य प्रकार की उत्तम किस्मों तथा जातियों को विकसित करके उत्पादन में वृद्धि करने में सराहनीय सफलता प्राप्त की है।

भूतल पर स्थित खेत, बागान प्रान नगर, सड़कें, रेल मार्ग, कारखानें, कार्यालय, खदानें विद्युत संयंत्र आदि मनुष्य के क्रिया कलापों के परिणाम हैं न कि प्रकृति प्रदत्त इस प्रकार इस भूतल पर असंख्य ऐसी वस्तुएं विद्यमान है जो मानव निर्मित हैं अथवा उसके द्वारा संशोधित हैं। अतः मानव प्रकृति संबंध की व्याख्या में मानव प्रयत्नों की पूर्ण उपेक्षा अवास्तविक तथा अनुचित है।

इस प्रकार आज के विकसित वैज्ञानिक युग में जहाँ चारों ओर मानव क्रिया-कलापों का साम्राज्य व्याप्त है और मानव जीवन पर प्रकृति का नियंत्रण अधिक नहीं रह गया है, प्राचीन एवं कठोर नियतिवाद की सार्थकता समाप्त हो चुकी है। अतः मानव-शक्ति तथा उसके कार्यों के महत्व को भुलाया नहीं जा सकता है। इस सत्य की कदापि अवहेलना नहीं की जा सकती कि मनुष्य आज अपनी सामर्थ्य से प्राकृतिक परिस्थितियों को अनेक रूपों में परिवर्तित करके उनका उपयोग कर रहा है।

अतः मनुष्य प्राकृतिक दशाओं से प्रभावित होता है किन्तु वह उसके पूर्ण नियंत्रण में नहीं है। इसीलिए अधिकांश भूगोलवेत्ता इस उम्र नियतिवाद (Determinism) को स्वीकार नहीं करते हैं और जो नियतिवादी (Determinism) विचारधारा के कुछ समर्थक हैं, वे भी मनुष्य पर प्रकृति का नियंत्रण नहीं कि प्रभाव ही स्वीकार करते हैं। परवर्ती वर्षों में कठोर नियतिवाद में संशोधन करके इस विचारधारा को नवीन ढंग से प्रस्तुत किया गया जिसे नवनियतिवाद (Neo Determinism) कहते है। 

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