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डेली का महाद्वीपीय फिसलन सिद्धान्त (Sliding Continent Theory of Daly)

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इस लेख को पढ़ने के बाद आप

  • डेली के महाद्वीपीय फिसलन सिद्धान्त (Sliding Continent Theory of Daly) की आलोचनात्मक व्याख्या कर पाएंगे।
  • महाद्वीपीय फिसलन सिद्धान्त से संबंधित महत्त्वपूर्ण शब्दावली जैसे आद्य पपड़ी (rudimentary crust, भूमध्यरेखीय तथा ध्रुवीय गुम्बद, मध्य अक्षांशीय खाई आदि को समझ सकेंगे।

डेली का महाद्वीपीय फिसलन सिद्धान्त (Sliding Continent Theory of Daly)

डेली का सिद्धान्त महाद्वीपीय भागों के नीचे की ओर फिसलने की गति पर आधारित है तथा इसका प्रमुख कारण गुरुत्वाकर्षण बल रहा है। डेली ने स्वयं दावा किया हैं कि गुरुत्वबल पर आधारित उनका सिद्धान्त पर्वत निर्माण की समस्याओं का पूर्णतया निराकरण कर सकता है। 

उन्होंने बताया कि पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद शीघ्र ही मौलिक तरल पृथ्वी के ऊपर एक पपड़ी के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसे उन्होंने आद्य पपड़ी (primitive crust) बताया है। भूमध्यरेखा तथा ध्रुवों के पास कठोर स्थलखण्ड थे, जिन्हें डेली ने भूमध्यरेखीय तथा ध्रुवीय गुम्बद बताया है। 

उन्होंने आगे बताया कि इन स्थलीय गुम्बदों के बीच जलीय भाग थे, जो मध्य अक्षांशीय खाई तथा आद्य प्रशान्त सागर के रूप में थे। इन जलीय भागों के नीचे आद्य पपड़ी का विस्तार था। ऊपरी पपड़ी (ग्रेनाइट) का घनत्व अधः स्तर (substratum) की अपेक्षा अधिक था। स्थलीय गुम्बद जलीय भाग से ऊपर उठे थे तथा उनका झुकाव मध्य आक्षांशीय खाई और प्रशान्त महासागर की ओर था। ये जलीय भाग प्रारम्भिक भूसन्नति के रूप में थे।

diagram of Sliding Continent Theory of Daly

 

इन भूसन्नतियों में समीपवर्ती स्थलीय गुम्बदों के अपरदन से प्राप्त मलवा का जमाव होने लगा। परिणामस्वरूप सागरीय (भूसन्नति) तली पर जल तथा मलवा के भार के कारण दबाव बढ़ने लगा, जिस कारण सागर की तली में धँसाव होने लगा। सागरीय तली पर दबाव तथा उसके धँसाव के कारण स्थलीय गुम्बदों की ओर पार्श्विक दबाव (lateral pressure) की उत्पत्ति हुई, जिस कारण ये स्थलीय भाग चौड़े गुम्बद के रूप में परिवर्तित हो गए। 

गुरुत्व बल, सागरीय जल तथा तलछटीय भार के कारण जैसे-जैसे सागरीय तली का नीचे की ओर धँसाव होता गया, वैसे-वैसे दबाव के कारण गुम्बद के आकार में विस्तार हो गया तथा ऊँचाई बढ़ती गयी। इस कारण ऊपर से भार हल्का होने के कारण गुम्बद का अवसाद फैलने लगा, परिणामस्वरूप उसके भार में कमी आने लगी। इस कमी को पूर्ण करने के लिए पृथ्वी के आन्तरिक भाग से गुम्बदों के नीचे की ओर अवसाद का बहाव प्रारम्भ हो गया। इस क्रिया के कारण गुम्बद के अन्दर भारी पदार्थों का संचयन होता रहा तथा अधिक पदार्थ एकत्रित होता गया। 

उपर्युक्त क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण गुम्बदीय भाग में निरन्तर वृद्धि होती गयी। गुम्बद के मध्यवर्ती भाग की अपेक्षा उसके किनारे वाले भाग में वृद्धि तथा विकास अधिक होता है, जिस कारण दबाव का आविर्भाव होत है, जिसका असर सागरीय तली वाली पपड़ी पर पड़ता है। 

जब यह तनाव तली की सहनशक्ति से अधिक हो जाता है, तो तली की पपड़ी में फटन तथा टूटन (rupture) प्रारम्भ हो जाती है। परिणामस्वरूप गुम्बद का आश्रय (आधार) हट जाता है और गुम्बद बड़े बड़े खण्डों में टूटकर भूसन्नति की ओर फिसलने लगता है, जिस कारण भूसन्नति पर दबाव पड़ता है। फलस्वरूप भूसन्नति का मलवा वलित होकर पर्वत में बदल जाता है। 

इस तरह ” महाद्वीपीय भागों की जितनी ही अधिक फिसलन होगी, भूसन्नत्ति के मलवा का सम्पीडन उतना ही अधिक होगा और उतने ही ऊंचे तथा विस्तृत पर्वतों का निर्माण होगा।” भूसन्नति की तली का टूटा भाग नीचे जाकर अधः स्तर में डूब जाता है तथा वहाँ अधिक तापमान के कारण पिघल जाता है जिससे उसके आयतन में विस्तार होता है, परिणामस्वरूप पर्वत में पुनः उत्थान होने लगता है।

डेली के सिद्धान्त के आधार पर वर्तमान पर्वतों के वितरण की सुस्पष्ट व्याख्या हो जाती है। प० से पू० फैले आल्प्स, हिमालय श्रृंखलाओं का निर्माण महाद्वीपीय भाग के मध्य अंक्षाशीय खाई की ओर फिसलने से हुआ है तथा उत्तर से दक्षिण दिशा में फैले हुए राकीज तथा एण्डीज पर्वतों की उत्पत्ति महाद्वीपीय भाग के प्रशान्त महासागर की ओर फिसलन के कारण हुयी है।

डेली के महाद्वीपीय फिसलन सिद्धान्त की आलोचना

निम्नलिखित बातों को लेकर डेली के महाद्वीपीय फिसलन सिद्धान्त की आलोचना की गई:

  • डेली ने पृथ्वी की संरचना के विषय में गलत विवरण दिया है। इन्होंने ऊपरी पपड़ी का घनत्व अधःस्तर से अधिक बताया है, जो गलत है।
  • डेली का सिद्धान्त उनके द्वारा कल्पित तथ्यों पर आधारित है। इसके लिए डेली प्रमाण प्रस्तुत नहीं करते।
  • डेली ने भूसन्नति के विषय में गलत विवरण दिया है। साधारण रूप में भूसन्नतियाँ लम्बे, संकरे तथा अपेक्षाकृत उथले जलीय भाग होती हैं, परन्तु डेली ने सागरों को भूसन्नति का रूप दिया है।
  • इन्होंने पर्वत निर्माण की प्रक्रिया के विषय में भी गलत धारणाओं को जन्म दिया है। यह सिद्धान्त महासागरों के विस्तार तथा गहराइयों तथा उनमें जमा होने वाले पदार्थों का विचार नहीं करता, वरन् प्रत्येक महासागर से पर्वत निर्माण की आशा करता है। इस आधार पर वर्तमान सागरों से भी पर्वत निर्माण की आशा की जा सकती है, परन्तु यह सम्भव नहीं है, क्योंकि यदि दोनों अमेरिका का सागर तल के बराबर अपरदन हो जाय तो भी अटलाण्टिक महासागर भर नहीं सकता है।
  • यह सिद्धान्त जल तथा थल के ऐसे वितरण में विश्वास करता है जो सिद्धान्त के उद्देश्य की पूर्ति कर सके।

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