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अपवाह तंत्र अपवाह तंत्र (Drainage System): अर्थ
किसी भी क्षेत्र या प्रदेश के अपवाह जाल की विशेषताओं का अध्ययन दो रूपों में किया जाता है
(1) वर्णनात्मक उपागम तथा
(2) जननिक उपागम रूप में
वर्णनात्मक उपागम में किसी क्षेत्र विशेष की सरिताओं के आकार (form) तथा प्रतिरूप (pattern) की विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है जबकि जननिक उपागम में क्षेत्र विशेष की सरिताओं के उद्भव एवं विकास का उस क्षेत्र की चट्टानों के प्रकार, भौमिकीय संरचना, विवर्तनिकी तथा जलवायु दशाओं के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाता है।
इस तरह अपवाह तंत्र (drainage system) का संबंध सरिताओं की उत्पत्ति तथा उनके समय के साथ विकास से होता है जबकि अपवाह प्रतिरूप का संबंध किसी क्षेत्र विशेष की सरिताओं के ज्यामितीय रूप तथा स्थानिक व्यवस्था (spatial arrangement) से होता है।
किसी भी प्रदेश में अपवाह तंत्र की उत्पत्ति तथा समय के साथ विकास दो प्रमुख कारकों द्वारा निर्धारित तथा नियंत्रित होता है।
1. सरिता उत्पत्ति से पहले की धरातलीय सतह की प्रकृति तथा ढाल, एवं
2. भौमिकीय संरचना (यथा – वलन, भ्रंश, दरार, संधि, नति, नतिलम्ब तथा शैल प्रकार)
अपवाह तंत्र के प्रकार
अपवाह तंत्र या सरिताओं को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जाता है:-
क्रमवर्ती सरिता (sequent streams)
वें सरिता जो क्षेत्र विशेष के ढाल के अनुरूप बहती हैं तथा धरातलीय संरचना के साथ समायोजित होती हैं, यथा- अनुवर्ती, परवर्ती, प्रति अनुवर्ती तथा नवानुवर्ती सरितायें।
अक्रमवर्ती सरिता (insequent streams)
वें सरिता जो प्रादेशिक ढाल का अनुसरण नहीं करतीं तथा धरातलीय संरचना के प्रतिकूल प्रवाहित होती हैं, यथा – पूर्ववर्ती तथा पूर्वारोपित सरितायें।
प्रमुख अपवाह तंत्र
क्रमवर्ती अपवाह तंत्र (Sequent Drainage System)
इसके अन्तर्गत उन सरिताओं को शामिल किया जाता है, जो ढालों के अनुरूप प्रवाहित होती हैं यथा – अनुवर्ती सरिता, परवर्ती सरिता, प्रत्यनुवर्ती सरिता, नवानुवर्ती सरिता आदि।
अनुवर्ती सरिता (consequent streams)
किसी भी क्षेत्र में सबसे पहले अनुवर्ती सरिता का उद्भव होता है। ये सरितायें क्षेत्रीय धरातल के प्रारम्भिक ढाल के अनुसार प्रवाहित होती हैं। दूसरे शब्दों में अनुवर्ती नदियाँ प्रादेशिक ढाल का अनुसरण करती हैं। इन्हें नति सरिता (dipstreams) कहते हैं।
भारत के तटीय भागों पर प्रवाहित होने वाली अधिकांश नदियां अनुवर्ती नदियों की उदाहरण हैं। अनुवर्ती नदियों की उत्पत्ति तथा विकास के लिए सर्वाधिक अनुकूल स्थलाकृति ज्वालामुखी शंकु तथा गुम्बदीय संरचना होती है।
अनुवर्ती नदियों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है-
- अनुदैर्ध्य अनुवर्ती (longitudinal consequent) – ये सरिताएँ वलित संरचना में अभिनतियों का अनुसरण करती हैं।
- पार्श्ववर्ती अनुवर्ती (lateral consequent) – ये सरिताएँ अपनतियों (anticlines) के पार्श्व भागों पर विकसित होती हैं। पार्श्ववर्ती अनुवर्ती नदियाँ प्रमुख अनुवर्ती या अभिनतीय अनुवर्ती नदियों से समकोण पर मिलती हैं।
परवर्ती सरिता (subsequent stream)
अनुवर्ती सरिताओं के बाद उत्पन्न तथा अपनतियों या कटकों (ridges) के अक्षों (axis) का अनुसरण करने वाली सरिताओं को परवर्ती सरिता कहते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार परवर्ती नदियाँ अपनतियों के पार्श्व भागों, पर उत्पन्न होकर अभिनतीय प्रमुख अनुवर्ती नदियों से समकोण पर मिलती हैं (इस तरह ऊपर वर्णित में पार्श्ववर्ती अनुवर्ती ही परवर्ती सरिताएँ हैं), जबकि अन्य का कहना है कि परवर्ती नदियाँ प्रमुख अनुवर्ती के समानान्तर होती हैं।
ऊलरिज तथा मार्गन के अनुसार प्रमुख अनुवर्ती की प्रथम पीढ़ी की सभी सहायक नदियाँ परवर्ती होती हैं क्योंकि इनका उद्भव प्रधान अनुवर्ती के बाद (परवर्ती माने बाद की) होता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि जितनी भी सरिताएँ प्रमुख अनुवर्ती से अनुप्रस्थ (transverse यानी समकोण पर) रूप में मिलती हैं वे सभी परवर्ती होती हैं। देहरादून घाटी में गंगा तथा यमुना नदियाँ प्रमुख अनुवर्ती हैं जबकि यमुना की सहायक असान नदी तथा गंगा की सहायक सांग नदी परवर्ती नदियों की उदाहरण हैं।
प्रतिअनुवर्ती सरिता (obsequent streams)
प्रधान अनुवर्ती सरिता की प्रवाह दिशा के विपरीत दिशा में प्रवाहित होने वाली सरिता को प्रतिअनुवर्ती कहा जाता है। वास्तव में प्रतिअनुवर्ती भी अनुवर्ती सरिता ही होती है क्योंकि वह भी ढाल के अनुरूप ही प्रवाहित होती है। प्रतिअनुवर्ती परवर्ती से समकोण पर मिलती हैं। उदाहरण के लिए शिवालिक श्रेणियों से निकलकर उत्तर दिशा में प्रवाहित होने वाली सरिताएं प्रतिअनुवर्ती हैं क्योंकि ये दक्षिण दिशा में प्रवाहित होने वाली प्रधान अनुवर्ती गंगा तथा यमुना की सहायक पूर्व-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होने वाली परवर्ती नदियों से समकोण पर मिलती हैं।
नवानुवर्ती सरिता (resequent streams)
प्रधान अनुवर्ती सरिता की प्रवाह दिशा के अनुरूप दिशा में प्रवाहित होने वाली सरिताओं को नवानुवर्ती कहा जाता है। प्रधान अनुवर्ती की तुलना में नवानुवर्ती का उद्भव बहुत बाद में होता है। नवानुवर्ती सरिता का उद्भव वलित संरचना पर द्वितीय अपरदन चक्र के समय होता है। प्रथम अपरदन चक्र के दौरान वलित पर्वतों के अपरदन के कारण ‘उच्चावच्च प्रतिलोमन’ हो जाता है जिस कारण अपनतियों के स्थान पर ‘अपनतीय घाटियों’ और अभिनतियों के स्थान पर ‘अभिनतीय कटक’ (synclinal ridges) का निर्माण होता है।
अक्रमवर्ती (insequent) अपवाह तंत्र
जो नदियाँ क्षेत्र विशेष के ढाल के अनुरूप न होकर प्रतिकूल दिशा में तथा धरातलीय संरचना के आर-पार प्रवाहित होती हैं, उन्हें अक्रमवर्ती सरिता कहते हैं। इस तरह के अक्रमवर्ती अपवाह तंत्र पूर्ववर्ती तथा पुर्वारोपित सरिताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
पूर्ववर्ती अपवाह तंत्र (Antecedent Drainage System)
पूर्ववर्ती जलधारा उसे कहते हैं, जिसका आविर्भाव स्थलखण्ड में उत्थान के पहले हो चुका है। साधारण अर्थों में पहले से प्रवाहित होने वाली जलधारा को पूर्ववर्ती कहते हैं, जिस पर संरचना या स्थलखण्ड के उत्थान का प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि नदी घाटी का विकास किसी स्थान विशेष पर हो जाता है और उसके बाद यदि नदी के मार्ग में स्थलखण्ड में उत्थान होता हो तो पूर्ववर्ती नदी ऊँचे उठे स्थलखण्ड को काटकर अपने पुराने मार्ग एवं घाटी को सुरक्षित रखती है।
इस प्रकार परिभाषा के रूप में पूर्ववर्ती नदियाँ वे जलधाराएं हैं, जो कि स्थलखण्ड में उत्थान होने पर भी अपने पहले वाले मार्ग को ही अपनाती हैं। इस तरह पूर्ववर्ती नदियाँ अपने धरातलीय ढाल तथा संरचना से समायोजित नहीं होती हैं। पूर्ववर्ती नदियों को अक्रमवर्ती जलधारा (inconsequent streams) भी कहा जाता है।
क्योंकि ये सरिताएँ स्थानीय ढाल का अनुसरण नहीं करती, इसलिए इन्हें विलोम अनुवर्ती या प्रतिअनुवर्ती (anti consequent) सरिता भी कहा जाता है।
पूर्वारोपित अपवाह तंत्र (Superimposed Drainage System)
पूर्ववर्ती सरिता के समान ही पूर्वारोपित या अध्यारोपित सरिता अपने प्रवाह स्थल की संरचना के साथ समायोजित नहीं होती है अर्थात् वह स्थलखण्ड के ढाल का अनुसरण नहीं करती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि दोनों नदियाँ समान उत्पत्ति वाली हैं। इनके विकास के इतिहास में पर्याप्त विभेद है, जिसका उल्लेख आगे किया जायेगा।
यहाँ पर पहले पूर्वारोपित सरिता के विकास का उल्लेख अन्तर स्पष्ट करने में सहायक होगा। यह सदैव आवश्यक नहीं है कि भूमिगत संरचना का ढाल या भूमिगत शैलों के स्तर का स्वभाव उसके ऊपर बिछे शैल आवरण के समान हो। प्राय: ऐसा होता है कि ऊपर का शैल आवरण अपने नीचे स्थित शैल की संरचना से भिन्न होता है। सर्वप्रथम नदी की घाटी का निर्माण ऊपरी आवरण पर होता है।
जब ऊपरी आवरण पर नदी की घाटी का विकास हो चुका होता है तो नदी निम्न कटाव द्वारा अपनी निर्मित घाटी का विस्तार तथा विकास निचली संरचना पर भी करती है, चाहे वह ऊपरी संरचना से भिन्न ही क्यों न हो। इस अवस्था में निचली संरचना को ऊपरी शैल आवरण में निर्मित घाटी के आकार और स्वभाव को स्वीकार करना ही पड़ता है, यद्यपि अगर विभिन्न स्वभाव वाली निचली संरचना ऊपर होती है तो उसे अपनी इच्छानुसार चुनाव करने का अवसर मिल सकता था, परन्तु यहाँ पर उसके समक्ष कोई चुनाव का प्रश्न ही नहीं है।
ऐसी अवस्था में ऊपरी आवरण वाली घाटी का निचली संरचना पर आरोपण (superimposition) कर दिया गया है। इस तरह की घाटी वाली सरिता को ‘अध्यारोपित या पूर्वारोपित सरिता’ (superimposed stream) कहा जाता है। इन जलधाराओं की घाटियाँ स्थानीय संरचना के विरुद्ध होती हैं।
पूर्वारोपित तथा पूर्ववर्ती सरिताओं में अन्तर
पूर्वारोपित तथा पूर्ववर्ती सरिताओं में अन्तर यह होता है कि प्रथम ऊपरी संरचना में निर्मित घाटी का आरोपण निचली संरचना में करती है, चाहे वह किसी प्रकार की संरचना क्यों न हो। इसमें उत्थान का समावेश नहीं किया जाता है। दूसरी में संरचना का महत्व नहीं होता है, वरन् नदी के मार्ग में उत्थान होता है और नदी उत्थान के साथ गहरा कटाव करके अपने पूर्ववत् मार्ग का अनुसरण करती है।
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