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सागर समीर एवं स्थल समीर (Sea Breeze and Land Breeze)
सागर समीर एवं स्थल समीर धरातल पर चलने वाली ऐसी स्थानीय पवन (local winds) होती हैं, जिनकी उत्पत्ति केवल स्थानीय कारणों से होती है तथा जिनके प्रभाव क्षेत्र सीमित होते हैं। अन्य कारणों की अपेक्षा इनकी उत्पत्ति स्थानीय (जिस स्थान या क्षेत्र पर ये चलती हैं) तापान्तर प्रमुख होता है। इन पवनों की ऊँचाई अधिक नहीं होती।
इन मन्द गति वाली स्थानीय पवनों की उत्पत्ति का एकमात्र कारण जल और स्थल का असमान रूप से गर्म तथा ठण्डा होना है। सागर तट के साथ लगते क्षेत्रों में चलने वाले इन पवनों की दिशा में रात और दिन में आमूल परिवर्तन होता है। इन पवनों को यदि दैनिक मानसून (diurnal monsoon) कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि दोनों प्रकार के पवनों की उत्पत्ति का कारण लगभग एक ही जैसा होता है।
सागर समीर क्या होती है (What is the sea breeze)?
दिन के समय, विशेषकर ग्रीष्म ऋतु में, जब समुद्र तथा उसके साथ लगते तटवर्ती क्षेत्रों पर सूर्य चमकता है, तब स्थल भाग जल की अपेक्षा जल्दी गर्म हो जाता है। धरातल के जल्दी गर्म हो जाने के कारण उसके ऊपर की वायु गर्म होकर फैल जाती है तथा हल्की होकर ऊपर की ओर उठने लगती है।
इस क्रिया के फलस्वरूप (स्थल भाग पर तापमान अधिक होने के कारण) धरातल के निकट वायुदाब में कमी हो जाती है। अतः दिन में गर्म स्थल के ऊपर वायुदाब न्यून हो जाता है। इस समय अपेक्षाकृत ठण्डे समुद्र तल पर वायुदाब अधिक पाया जाता है। इस प्रकार दिन में वायुदब प्रवणता जल से स्थल की ओर स्थापित हो जाती है तथा समुद्र से तटवर्ती क्षेत्रों की ओर ठण्डी पवन चलना प्रारम्भ हो जाती है, जिसे सागर समीर कहा जाता है।
सागर समीर से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
- जैसे हमने जाना कि धरातल के नजदीक तो पवनें समुद्र से स्थल भाग की ओर चलती है, लेकिन इसके ठीक विपरीत धरातल से कुछ ऊंचाई पर पवन का प्रवाह स्थल से जल की ओर होता है। इस प्रकार संवहन प्रणाली उत्पन्न हो जाती है। इस प्रणाली के अन्तर्गत उच्चस्तरीय पवन, जो स्थल से जल की ओर आता है, वायु के अधिकांश भाग को चारों ओर फैला देता है। अतः यह कहना पूर्णतया सत्य नहीं है कि सागर समीर के विपरीत दिशा में ऊपर प्रवाहित होने वाली वायु सब की सब धरातल पर लौट आती है।
- प्रातःकाल स्थल एवं जल का तापान्तर कम होने से सागर समीर की उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु दिन चढ़ने के साथ ही तापान्तर में वृद्धि होती जाती है और वायुदाब में अन्तर होने के कारण पूर्वाह्न 10 से 11 बजे के बीच सागर समीर चलना प्रारम्भ हो जाता है।
- अपराह्न में लगभग दो या ढाई बजे, जबकि स्थल और जल के तापमान में सर्वाधिक अन्तर अंकित किया जाता है, सागर समीर पूर्ण विकसित अवस्था में अधिकतम वेग से चलता है। इसके पश्चात् संध्या समय तापान्तर कम होने के साथ ही सागर समीर कमजोर होने लगती है, और सायं 2 बजे से 8 बजे के बीच समाप्त हो जाता है।
- सागर तटवर्ती क्षेत्रों में कई किलोमीटर तक इस शीतल समीर का प्रभाव पड़ता है। ट्रेवार्था के अनुसार मध्य अक्षांशीय प्रदेशों में तट से 15 से 50 किलोमीटर दूर तक तथा उष्णकटिबन्ध में 50-65 किलोमीटर दूर तक ये हवाएं चलती हैं।
- बड़ी-बड़ी झीलों के तटवर्ती क्षेत्रों में भी ऐसी पवन चलती हैं, किन्तु ये अधिक शक्तिशाली नहीं होती।
- सागर समीर छिछले पवन (shallow winds) होते हैं जिनकी ऊँचाई विभिन्न प्रदेशों की स्थानीय दशाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। उष्ण कटिबन्ध में धरातल से 100 से 2000 मीटर की ऊँचाई तक इन पवनों का विस्तार होता है, किन्तु झीलों पर इनकी ऊँचाई अपेक्षाकृत कम होती है।
- सागर समीर के वेग में भी धरातल के विभिन्न भागों में असमानता पाई जाती है। शीतोष्ण कटिबन्धीय सागर समीर का वेग 25 से 40 किलोमीटर होता है, जबकि उष्ण कटिबन्ध में कभी-कभी इनका वेग इतना अधिक हो जाता है कि ये पवन तूफानी हो जाते हैं।
- इन शीतल सागरीय पवनों का तटवर्ती क्षेत्रों की सँकरी पट्टी की जलवायु पर बड़ा ही समकारी प्रभाव पड़ता है। इनके कारण ग्रीष्म ऋतु में स्वच्छ मौसम में दिन का उच्चतम तापमान अधिक ऊँचा नहीं उठने पाता। इन पवनों के कारण तट के निकट स्थित क्षेत्रों का तापमान तट से दूर स्थित क्षेत्रों की अपेक्षा कम होता है।
स्थल समीर क्या होती है (What is the land breeze)?
सूर्यास्त के पश्चात् पार्थिव या ताप विकिरण के द्वारा स्थल जल की अपेक्षा शीघ्रता से शीतल होने लगता है और कुछ रात बीतने पर वह जल की अपेक्षा अधिक ठंडा हो जाता है। इस प्रकार रात्रिकालीन ताप विकिरण के कारण स्थल पर अधिक वायुदाब तथा जल पर न्यून वायुदाब स्थापित हो जाता है। इस प्रकार वायुदाब-प्रवणता स्थल से जल की ओर हो जाती है, जिससे तट के निकट स्थल की एक सँकरी पट्टी से सागर की ओर पवन प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है, जिसे स्थल समीर कहा जाता है।
स्थल समीर से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
- रात के समय दिन की अपेक्षा स्थल एवं जल का तापान्तर कम हो जाता है। अतः स्थल समीर सागर समीर की अपेक्षा क्षैतिज तथा ऊर्ध्वाधर दोनों ही दृष्टियों से कम विस्तृत होता है।
- सूर्योदय से कुछ पहले स्थल समीर का अधिकतम विकास होता है, किन्तु सूर्योदय के कुछ समय बाद उसका लोप हो जाता है।
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
- स्थल और सागर समीर उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धीय द्वीपों में विशेष रूप से विकसित होते हैं।
- प्रशान्त महासागरीय द्वीपों तथा पश्चिमी द्वीप समूह में मेघ रहित दिनों में इनका बहुत अधिक विकास होता है।
- दिन में जब सूर्य की किरणों से द्वीप गर्म हो उठते हैं, तो उनकी ओर चारों ओर से उष्ण सागरी पवन आने लगती हैं जो गर्म होकर ऊपर उठती है। इन आरोही (ऊपर उठती) पवनों में रुद्धोष्म ताप-हास दर (adiabatic lapse rate) पाई जाती है। अतः धरातल से थोड़ी ऊँचाई पर आरोही (ऊपर उठती) वायु में संघनन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है और मेघों का निर्माण होने लगता है।
- इस प्रकार निर्मित मेघ छोटे-छोटे द्वीपों के ऊपर प्रतिदिन दिखाई पड़ते हैं जिन्हें अडल मेघ (atoll clouds) कहा जाता है, क्योंकि ऐसे मेघ प्रायः उष्ण कटिबन्धीय प्रवाल द्वीपवलयों (atolls) पर ही देखे जाते हैं।
- तटवर्ती क्षेत्रों में नौका चालन में स्थल और सागर समीर से बड़ी सहायता मिलती है।
- उष्णकटिबन्धीय प्रदेशों में स्थित द्वीपों में, जब सागर समीर किसी पर्वतीय अवरोध के अभाव में अधिक दूर तक प्रवेश कर जाता है, तो वहाँ के निवासियों को दिन की उमसपूर्ण गर्मी से बड़ी राहत मिलती है। इसलिए इन हवाओं को ‘डाक्टर’ भी कहा जाता है।
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