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पवन की गति को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting Wind Speed)
वैसे तो पवन की गति को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं, लेकिन निम्नलिखित चार को प्रमुख माना जाता है:-
(1) वायुदाब-प्रवणता (pressure-gradient)
(2) पृथ्वी की घूर्णन गति (Rotation of earth)
(3) घर्षण (friction)
(4) पवन का अपकेन्द्री बल (centrifugal action of wind)
वायुदाब-प्रवणता एवं पवन (Pressure gradient and wind)
पृथ्वी तल पर समुद्र तल से समान ऊंचाई पर स्थित दो स्थानों के बीच वायुदाब के परिवर्तन की दर को वायुदाब प्रवणता कहा जाता है। वायु में क्षैतिज गति उत्पन्न होने का एक मात्र कारण किन्हीं दो स्थानों के बीच पाया जाने वाला वायुदाब का अन्तर अथवा वायुदाब-प्रवणता ही होती है। इसी प्रवणता की दिशा और परिमाण के द्वारा वायु की दिशा और उसका वेग निर्धारित होता है।
पवन प्रवाह की दिशा सदैव उच्च दाब से निम्न दाब की ओर होती है। दूसरे शब्दों में, पवन के चलने की दिशा प्रकट करने वाली रेखा समदाब रेखाओं के साथ समकोण बनाती है। सामान्यतया वायुदाब में जितना ही अधिक अन्तर होगा, पवन का वेग उतना ही अधिक होगा। वायुदाब-प्रवणता जब अधिक होती है तब पवन का वेग तीव्र हो जाता है, और जब प्रवणता मन्द होती है तब वेग भी कम हो जाता है।
समदाब रेखाओं (Isobar) के बीच की दूरी कम होने पर वायुदाब-प्रवणता तीव्र तथा दूरी अधिक होने पर प्रवणता मन्द होती है। अतः ऋतु मानचित्रों पर दिखाई देने वाली समदाब रेखाओं की सघनता अथवा विरलता से पवन के वेग का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
पृथ्वी की घूर्णन गति(Rotation of earth)
यदि वायुदाब-प्रवणता बल के द्वारा ही पवन की दिशा निर्धारित होती, तो हर समय और सब जगह पवन की दिशा समदाब रेखाओं से 90° के कोण पर होती। किन्तु धरातल पर चलने वाली पवन अनिवार्य रूप से इस नियम का पालन नहीं करती। वास्तव में, पृथ्वी के आवर्तन के कारण उत्पन्न विक्षेपक बल (deflective force) जिसे कोरियालिस बल (Coriolis force) भी कहते हैं, पवन की दिशा को मोड़ देता है।
कोरियालिस बल के कारण से उत्तरी गोलार्द्ध में पवन अपने पथ के दाई ओर, तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बाई ओर मुड़ जाती है।
घर्षण का प्रभाव (Friction)
पवन के वेग और उसकी दिशा को प्रभावित करने वाले कारकों में घर्षण बल (frictional force) का विशेष महत्व है। इस बल की उत्पत्ति धरातल और उसके ऊपर चलने वाली वायु के बीच होने वाले संघर्ष से होती है। धरातल के साथ लगकर चलने वाली पवन के वेग को यह घर्षण बल कम कर देता है। क्योंकि यह बल पवन प्रवाह की दिशा के ठीक विपरीत दिशा में कार्य करता है।
घर्षण बल वायु के वेग के वर्ग का समानुपाती होता है। पृथ्वी-तल पर स्थित उच्चावच (ऊँचे या नीचे भाग) तथा अन्य बाधाओं के कारण पवन प्रवाह में अवरोध उत्पन्न होता है, जिससे उसमें अनियमितता आ जाती है। यही कारण है कि हमें वायु के झोंकों (gusts) तथा पवन- विराम (lulls) का अनुभव होता है।
जल की अपेक्षा स्थलीय धरातल के खुरदरा होने के कारण उस पर घर्षण बल अधिक होता है। घर्षण बल के कारण पवन का वेग कम हो जाता है जिससे कोरियालिस बल (जितनी पवन का वेग अधिक होगा कोरियालिस बल उतना ही अधिक काम करेगा) में कमी आ जाती है, और प्रवणता बल अधिक प्रभावकारी हो जाता है। अतः हवाएं समदाब रेखाओं के समानान्तर चलने के बजाया उन्हें न्यून कोण पर काटती हुई अधिक दबाव से कम दबाव की ओर तिरछे चलने लगती हैं।धरातल जितना ही खुरदरा होगा, घर्षण बल उसी अनुपात में अधिक होगा, तथा पवन और समदाब रेखाओं के बीच के कोण में भी उसी अनुपात में वृद्धि हो जाएगी।
स्थानीय पवनों पर कोरियालिस बल का प्रभाव न पड़ने से प्रवणता बल तथा घर्षण बल में पूर्ण संतुलन स्थापित हो जाता है जिससे पवन सीधे उच्च दाब से निम्न दाब की ओर चलने लगता है। ऐसे पवनों को, जिनमें वायुदाब-प्रवणता बल घर्षण बल द्वारा संतुलित हो जाता है, जेफ्रीज ने ऐन्टीट्रिप्टिक पवन (antitriptic winds) की संज्ञा प्रदान की है। ऐसे पवनों का क्षैतिज विस्तार सीमित तथा गहराई कम होती है। ऐसे पवन अल्पकालिक भी होते हैं। स्थल तथा सागर समीर एवं पर्वत तथा घाटी समीर इनके विशिष्ट उदाहरण हैं।
धरातल से ज्यों-ज्यों ऊपर जाते हैं, घर्षण बल कम होता जाता है, जिससे वायु-वेग में वृद्धि हो जाती है तथा पवन की दिशा भी समदाब रेखाओं के समानान्तर हो जाती है। धरातल से लगभग 1000 मीटर तक की ऊँचाई वाले भाग को घर्षण स्तर कहा जाता है। इसके ऊपर वायुमण्डल में घर्षण बल का प्रभाव नगण्य हो जाता है। स्थल खण्डों पर समदाब रेखाओं के साथ पवनों के द्वारा 20° से 25° के कोण, तथा सागर तल पर केवल 10° के कोण बनाए जाते हैं। घर्षण स्तर के ऊपर पवन का वेग क्षोभ मण्डल तक बढ़ता जाता है, किन्तु उसको पार करते ही वह पुनः कम होने लगता है।
पवन का अपकेन्द्र बल (Centrifugal Force)
पवन-गति को प्रभावित करने वाला अन्य महत्वपूर्ण कारक स्वयं पवन का अपकेन्द्र बल (centrifugal force) है। जब पवन का मार्ग वक्र अथवा वृत्ताकार होता है, तब इस प्रकार के बल की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार का बल विभिन्न प्रकार के पवनों के वृत्ताकार पथ के केन्द्र से बाहर की ओर लगता है। जब कोई कण समान गति से वृत्ताकार मार्ग में चक्कर लगाता है, तब उस पर मार्ग के केन्द्र अथवा आवर्तन के अक्ष की दिशा में एक बल कार्य करता है जिसे अभिकेन्द्र बल (centripetal force) कहते हैं।
इसी बल के कारण वह कण वृत्ताकार मार्ग पर चलता है। चूंकि न्यूटन के गति के तीसरे नियम के अनुसार प्रत्येक क्रिया की उसके बराबर तथा विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है, अतः जब किसी कण पर केन्द्र की दिशा में एक बल कार्य करता है, तब इसके बराबर तथा विपरीत दिशा में एक दूसरे बल का होना स्वाभाविक है जो इस कण को केन्द्र से दूर फेंकने का प्रयत्न करता है। इस प्रतिक्रियात्मक बल को ही अपकेन्द्र बल कहते हैं।
उपर्युक्त दोनों बलों को आगे दिए गए उदाहरण द्वारा अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। यदि एक कंकड़ को रस्सी में बांध कर उसे एक वृत्त में घुमाया जाए, तो रस्सी का तनाव, जो केन्द्र की ओर कार्य करता है, अभिकेन्द्र बल प्रदान करता है। इस बल की प्रतिक्रिया रस्सी के तनाव की विपरीत दिशा में कंकड़ को बाहर की ओर खींचती है, जिससे ऐसा अनुभव होता है कि हमारा हाथ बाहर की ओर खिंच रहा है।
यदि रस्सी को सहसा छोड़ दिया जाए तो कंकड़ वृत्ताकार मार्ग की स्पर्शरखा की दिशा में चला जाएगा। वह केन्द्र की विपरीत दिशा में नहीं जाएगा, क्योंकि रस्सी को ज्यों ही छोड़ा जाता है, अभिकेन्द्र तथा अपकेन्द्र बल एक साथ समाप्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में कंकड़ जड़त्व (inertia) के कारण रस्सी छोड़ने के ठीक पहले चलने की दिशा में चला जाता है।
वृत्तकार पथ में घूमने वाले कण पर कार्य करने वाला अपकेन्द्र बल उसके कोणीय संवेग (angular velocity) का समानुपाती होता है। कणों की संहति (mass) तथा वक्राकार पथ की त्रिज्या समान रहने पर अपकेन्द्र बल कोणीय संवेग के वर्ग का समानुपाती है। त्रिज्या के कम होने पर भी कोणीय संवेग तथा अपकेन्द्र बल में वृद्धि हो जाती है। ऐसी स्थिति में जब कि समदाब रेखायें वृत्तकार होती हैं, पवन गति पर अपकेन्द्र बल का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
चक्रवात अथवा प्रतिचक्रवात में ही इस बल की उत्पत्ति होती है। उपर्युक्त वायुदाब प्रणालियों के अन्तर्गत् जब वायुदाब-प्रवणता के अनुसार पवन उच्च दाब से निम्नदाब की ओर चलता है, तो विक्षेपक बल के कारण वह सीधे पथ से विचलित हो जाता है तथा समदाब रेखाओं के समानान्तर प्रवाहित होने लगता है। किन्तु वृत्ताकार अथवा वक्र पथ में घूमने वाले इस पवन पर अपकेन्द्र बल कार्य करने लगता है। पवन का वेग तथा उसके पथ की वक्रता जितनी ही अधिक होगी, यह बल उतना ही अधिक होगा तथा विक्षेपन भी उसी अनुपात में होगा।
उत्तरी गोलार्द्ध में विक्षेप के कारण पवन अपने पथ के दाई ओर मुड़ जाती है, जिसमें अपकेन्द्र बल के कारण और भी वृद्धि हो जाती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में इस प्रकार का विक्षेप पथ के दाई ओर होता है।
प्रवणता पवन (Gradient Wind)
जब वृत्ताकार मार्ग से चलने वाले पवन में वायुदाब- प्रवणता बल, विक्षेपक बल एवं घर्षण बल में संतुलन स्थापित हो जाता है, तो उसे प्रवणता पवन (gradient wind) कहते हैं। ये पवन वायुमण्डल के ऊपरी भाग में समदाब रेखाओं के समानान्तर चलते हैं, किन्तु धरातल पर घर्षण के कारण ये निम्नदाब की ओर मुड़ कर उन्हें न्यूनकोण पर काटते हैं। धरातल पर अथवा उसके निकट घर्षण के कारण पवन का वेग कम हो जाता है जिसके फलस्वरूप विक्षेपक बल कम हो जाता है।
चक्रवात अथवा प्रतिचक्रवात में चलने वाली ऐसी हवाओं को चक्रगतिक पवन (cyclostrophic wind) कहते हैं। उपर्युक्त कारणों से ही उत्तरी गोलार्द्ध में चक्रवात में पवन वामावर्त तथा प्रतिचक्रवात में दक्षिणावर्त होता है। इसके विपरीत, दक्षिणी गोलार्द्ध में चक्रवात में पवन दक्षिणावर्त तथा प्रतिचक्रवात में वामावर्त होता है।
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