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इस लेख को पढ़ने के बाद आप मार्क्स के जनसंख्या सिद्धान्त (Marx’s Theory of Population) की आलोचनात्मक व्याख्या कर पाएंगे।
मार्क्स का जनसंख्या सिद्धान्त (Marx’s Theory of Population)
कार्ल मार्क्स (1818-83) उन्नीसवीं शताब्दी के महान दार्शनिक, अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री थे जिन्हें वैज्ञानिक समाजवाद का जनक माना जाता है। मार्क्स पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के कट्टर विरोधी और साम्यवाद (Communism) के प्रबल समर्थक एवं प्रचारक थे। यद्यपि उन्होंने जनसंख्या संबंधी किसी सिद्धान्त का अलग से प्रतिपादन नहीं किया था किन्तु उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दास कैपिटल’ (Das Capital) में साम्यवादी अर्थव्यवस्था के विवेचन में जनसंख्या के सम्बन्ध में जिन विचारों का विश्लेषण किया गया है उन्हीं के आधार पर मार्क्स के जनसंख्या सिद्धान्त की व्याख्या की जाती है।
कार्ल मार्क्स (Carl Marx) ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के दोषों की विस्तृत व्याख्या के साथ ही उसकी कटु आलोचना की है। उनके अनुसार, जनसंख्या समस्या के साथ ही समाज की समस्त सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ही दुष्परिणाम हैं।
मार्क्स, माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का भी कटु आलोचक था और माल्थस के कार्य को स्कूली बच्चों के कार्य जैसा साधारण और एक पादरी के उत्कृष्ट चोरी का कार्य मानता था। आलोचना का एक प्रमुख कारण यह भी था कि माल्थस का सिद्धान्त पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित था जिसका मार्क्स प्रबल विरोधी था।
मार्क्स का यह भी मत था कि जनसंख्या का कोई विश्व व्यापी सिद्धान्त नहीं है क्योंकि विभिन्न जनसंख्या सिद्धान्त पृथक्-पृथक् सामाजिक-आर्थिक दशाओं पर आधारित हैं, जबकि प्रत्येक उत्पादन पद्धति का अपना अलग-अलग जनसंख्या सिद्धान्त होता है। मार्क्स ने समाज को दो वर्गों में विभक्त किया
- धनिक वर्ग या पूँजीपति जो उत्पादन साधनों का स्वामी होता है और लाभ या अतिरेक मूल्य (surplus value) अर्जित करता है। यह अतिरेक मूल्य विनिमय मूल्य (exchange value) और निर्वाह मूल्य (subsistence value) के अन्तर का परिणाम होता है और धनिक वर्ग इस अतिरेक मूल्य को पूँजी के रूप में संचित करता है।
- निर्धन या सर्वहारा वर्ग जिसकी सम्पत्ति मात्र श्रम होती है। अतः वह श्रम संचय (जनसंख्या वृद्धि) का प्रयत्न करता है।
मार्क्स के अनुसार संसार में जनाधिक्य तथा बेरोजगारी पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के अद्वितीय तथा अवश्यंभावी परिणाम हैं। उनके विचार से निर्धनता और विपत्तियाँ पूँजीवादी व्यवस्था के दोषों के ही प्रतिफल हैं। साम्यवादी व्यवस्था के प्रचलन से ये सामाजिक-आर्थिक बुराइयाँ समाप्त हो जाएंगी।
मार्क्स का विचार था कि कार्यशील जनसंख्या (श्रमिक वर्ग) ही पूँजी संचय की दशाओं को प्रभावित करती है और ऐसे उत्पादन के साधनों (जनसंख्या) का निर्माण करती है जिससे वह स्वयं अतिरिक्त (जनसंख्या) बन जाती है और सापेक्षरूप से जनाधिक्य में परिवर्तित हो जाती है तथा भविष्य में भी सतत रूप से बढ़ती जाती है।
मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में जनाधिक्य तथा उससे उत्पन्न बेरोजगारी, निर्धनता आदि के निम्नलिखित कारण होते हैं-
- पूँजीवादी व्यवस्था में धनिक वर्ग मजदूरों को कम मजदूरी देता है और मजदूरी में कटौती करके अपने लाभ को अधिकतम करने का प्रयास करता है तथा अधिकाधिक धन अर्जित करता है। वह इस अतिरेक मूल्य का संचय उत्पादन बढ़ाने के लिए पूँजी, मशीन आदि के रूप में करता है। पूँजीपति अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से मशीनों, स्वचालित उपकरणों, नवीन प्रौद्योगिकी आदि का प्रयोग बढ़ाता रहता है जिससे श्रमिकों की छंटनी आदि के परिणामस्वरूप बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
- मजदूरों को उचित मजदूरी से कम मजदूरी मिलने के कारण उनका जीवन स्तर नीचा बना रहता है। वह परिवार में श्रमिक संख्या में वृद्धि करके ही अधिक धन (अधिक मजदूरी) को प्राप्त कर सकता है क्योंकि उसके पास उसके परिवार के सदस्य ही उसकी पूँजी होते हैं। इस कारण से निर्धन श्रमिक वर्ग जनसंख्या वृद्धि में तत्पर रहता है किन्तु इस जनसंख्या वृद्धि से अतिरिक्त बेरोजगारी उत्पन्न होती है जो निर्धन को और निर्धन बना देती है। इस प्रकार धनी वर्ग और निर्धन वर्ग का अंतराल बढ़ता ही जाता है।
मार्क्स का मत था कि पूँजीवादी व्यवस्था ही जनसंख्या की समस्या की जड़ है। अतः पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बदलाव लाकर उसके स्थान पर साम्यवादी प्रणाली या सामूहिक उत्पादन प्रणाली (Mass Production System) के माध्यम से अतिरेक जनसंख्या (Overpopulation) की समस्या को हल किया जा सकता है। इस अर्थ व्यवस्था में आय वितरण की असमानताएँ दूर हो जाएंगी और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होगी तथा सामान्य जीवन स्तर में सुधार होगा।
आय के साथ ही कार्य के समान वितरण से सभी को कार्य उपलब्ध होगा और बेरोजगारी की समस्या ही नहीं उत्पन्न होगी। समाज के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप जीवन-स्तर में उत्थान से जन्मदर में गिरावट आएगी और पोषण तथा स्वास्थ्य में सुधार से मृत्युदर में भी ह्रास होगा। इस प्रकार मार्क्स जनसंख्या की समस्या का एक मात्र हल साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना को ही मानते थे।
मार्क्स के सिद्धान्त की आलोचनाएं
मार्क्स के सिद्धान्त की कुछ प्रमुख आलोचनाएं निम्नलिखित हैं –
- मार्क्स पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विरोधी था और इस पूर्वाग्रह से ही वह जनसंख्या समस्या के सभी दोषों को पूँजीवादी व्यवस्था का ही दुष्परिणाम मानता था। उसका यह विचार सत्य नहीं है क्योंकि साम्यवादी देशों में भी जनाधिक्य, निर्धनता आदि की समस्याएं पाई जाती हैं।
- मार्क्स ने साम्यवादी व्यवस्था में होने वाली प्रजननता की प्रकृति की स्पष्ट व्याख्या नहीं की है जिसके कारण यह नहीं मालूम हो पाता है कि ऐसी अर्थव्यवस्था में जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति क्या होगी।
- मार्क्स केवल पूँजीवादी व्यवस्था के बदलाव से ही जनसंख्या की समस्याओं को हल करना चाहते थे। उनका कहना कि ‘साम्यवादी अर्थव्यवस्था में जनाधिक्य नहीं हो सकता चाहे जनसंख्या की वृद्धि दर कुछ भी हो, न तो उचित है और न सत्य ही।
- अति जनसंख्या या जनाधिक्य की समस्या पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वाले अनेक देशों में नहीं है। यह स्थिति साम्यवाद के द्वारा नहीं बल्कि आर्थिक सम्पन्नता और कृत्रिम साधनों के अधिक उपयोग से सम्भव हुई है।
- यदि जनसंख्या की समस्त समस्याओं का हल साम्यवाद होता तो अभी हाल में 73 वर्ष पश्चात् साम्यवादी देश भूतपूर्व सोवियत संघ (U.S.S.R.) का विभाजन न हुआ होता। विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से ग्रस्त होने के कारण ही इसके घटक कई राज्यों ने स्वतंत्रता ग्रहण करके पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को अपना लिया है। इस प्रकार इस अद्वितीय घटना ने मार्क्स के विचारों और सिद्धान्त की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है।
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