क्रियात्मक अथवा कार्यात्मकवाद (Functionalism)

‘कार्यात्मकवाद व्यवसायों से जुड़ी अवधारणा है’। वह समाज के कार्यों अथवा सामाजिक व्यक्तियों की क्रियाएँ हैं। यह दृष्टिकोण हमे यह बताता है कि विश्व या मानव समाज एक ऐसा तंत्र है जो भिन्न-भिन्न, परन्तु अन्तःनिर्भर बने तंत्रों का एक समूह है।
उपयोगितावाद (Pragmatism)

उपयोगितावाद (Pragmatism)
उपयोगितावाद एक ऐसा दार्शनिक दृष्टिकोण है जो अनुभव द्वारा अर्थपूर्ण विचारों को जन्म देता है। यह सोच अनुभवों, प्रयोगात्मक खोजबीन, और सत्य के आधार पर परिणामों का मूल्यांकन करती है। अनुभवों पर आधारित किए गए कार्यों के फल अर्थपूर्ण व ज्ञानप्रद हैं।
प्रत्यक्षवाद या अनुभववाद (Positivism or Empiricism)

ऐतिहासिक रूप से प्रत्यक्षवाद का उदय फ्रांस की क्रांति के उपरान्त हुआ, और ऑगस्त कॉम्टे ने इसे स्थापित बनाया। क्रांति से पूर्व प्रचलित बना यह निषेधवादी-दर्शन (Negative Philosophy) की प्रतिक्रिया स्वरूप जन्मा वैज्ञानिक प्रत्यक्षवादी सोच था।
भूगोल में अपवादात्मकता (Exceptionalism in Geography)

‘भूगोल में अपवादिता’ की शब्दावली को शेफ़र (Schaefer) ने हवा दी। शेफ़र जो नाजी जर्मनी से बचकर अमरीका आ गया था मूलतः अर्थशास्त्री था, और आयोवा (Iowa) विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में भूगोल का अध्यापन करने वाले समूह से जुड़ा हुआ था।
उत्तरआधुनिकता (Postmodernism)

मानविकीय ज्ञान, दर्शन और सामाजिक विज्ञानों व कला में आजकल उत्तरआधुनिकता का आन्दोलन चला है। उत्तरआधुनिकता आधुनिक भूगोल में ऐतिहासिकता की प्रतिक्रिया है। ऐतिहासिकवाद का ज़ोर व्यक्तियों एवं सामूहिक घटनाओं के कालक्रमानुसार वर्णन पर होता है, और यह स्थानिकता को नज़रन्दाज करता है।
समय (काल) भूगोल (Time Geography)

स्वीडन के भूगोलवेत्ता हेगरस्ट्रेण्ड (T. Hagerstrand) और उसके सहायकों ने लुण्ड विश्वविद्यालय में ‘समय के भूगोल’ सम्बन्धी विचार विकसित किए। समय और स्थान की जोड़ी अविछिन्न है, और “प्रत्येक घटना भूतकालीन स्थिति में अपनी जड़ें जमाए रहती है।”
उत्तरआधुनिकता एवं नारीवाद (Postmodernism and Feminism)

जॉनसन (1989) के अनुसार नारीवाद भूगोल में महिलाओं के सामान्य अनुभवों की पहचान करना, पुरुषों द्वारा दमन के प्रति उनका प्रतिरोध और उसको अन्त करने की प्रतिबद्धता आदि विषय सम्मिलित है। नारीवाद भूगोल का उद्देश्य ‘नारी अभिव्यक्ति को प्रकट बनाना और अपने को नियंत्रित करना’ है।
डेविस का ढाल पतन सिद्धान्त (Slope Decline Theory by Davis)

डेविस महोदय ने ही ढालों के विकास में चक्रीय व्यवस्था को प्रतिपादित किया था। इनके अनुसार अपरदन चक्र की युवावस्था में नदी द्वारा निम्नवर्ती अर्थात् लम्बवत अपरदन तथा अपक्षय के कारण तीव्र उत्तल ढाल का विकास होता है। इस अवस्था में ढाल का निवर्तन कम होता है तथा पतन बिल्कुल नहीं होता है।
ढालों का वर्गीकरण (Classification of Slopes)

कुछ विद्वान सरलीकरण के लिए ढालों को क्लिफ ढाल, उत्तल, अवतल, सरल रेखी ढाल इत्यादि प्रकारों में विभाजित कर लेते हैं तथा जब इनमें से एक से अधिक ढाल एक साथ मिलते हैं तो उनको संयुक्त ढाल (composite slope) कहते हैं। यह विभाजन न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि ये ढाल के प्रकार न होकर उनके तत्त्व या अंग होते हैं।
अपवाह तंत्र: अर्थ तथा प्रमुख अपवाह तंत्र (Drainage System: Meaning and Major Drainage Systems)

अपवाह तंत्र (drainage system) का संबंध सरिताओं की उत्पत्ति तथा उनके समय के साथ विकास से होता है जबकि अपवाह प्रतिरूप का संबंध किसी क्षेत्र विशेष की सरिताओं के ज्यामितीय रूप तथा स्थानिक व्यवस्था (spatial arrangement) से होता है।
ढाल का अर्थ, महत्त्व एवं तत्त्व (Meaning, Importance and Elements of Slope)

ढाल धरातल पर पाए जाने वाले स्थलस्वरूपों के प्रमुख अंग हैं, जो कि पहाड़ी तथा घाटी के मध्य उपरिमुखी या अधोमुखी झुकाव होते हैं। इनका आकार अवतल, उत्तल, सरल रेखी (rectilinear), मुक्त पृष्ठ (free face) या तीव्र दीवालनुमा हो सकता है। समतल मैदानी भाग को छोड़कर ढाल सभी जगह देखे जा सकते हैं तथा पहाड़ी भागों में इनका विकास सर्वाधिक होता है।
भारत के जनसंख्या-संसाधन प्रदेश (Population-Resource Regions of India)

भारत को जनसंख्या-संसाधन प्रदेशों में विभक्त करने का महत्वपूर्ण प्रयास कुमारी पी. सेनगुप्ता (1970) ने किया है। उन्होंने जनांकिकीय संरचना (जनसंख्या घनत्व और जनसंख्या वृद्धि दर), संसाधन भंडार और सामाजिक-आर्थिक विकास के स्तर को आधार बनाते हुए सम्पूर्ण भारत को तीन बृहत् श्रेणियों के अंतर्गत कुल 19 जनसंख्या संसाधन प्रदेशों में विभक्त किया है।
जनसंख्या समस्याएं (Population Problems)

अति जनसंख्या या जनाधिक्य (overpopulation) और अल्प जनसंख्या या जनाभाव (under population) दोनों ही दशाओं में विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जिनको प्रकृति सामान्यतः एक-दूसरे से भिन्न होती है। जनाधिक्य की समस्या विकासशील देशों के साथ ही कुछ विकसित देशों में भी पायी जाती है। इसी प्रकार जनाभाव की समस्या भी कई विकसित और विकासशील देशों में मिलती है।
जनसंख्या के सामाजिक सिद्धान्त (Social Theories of Population)

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही अनेक समाजवादी विचारकों तथा लेखकों ने मानवीय कष्टों का कारण अधिक जनसंख्या को नहीं, आय के असमान वितरण तथा सामाजिक व्यवस्था की बुराइयों को दोषी सिद्ध करने का प्रयास किया है। माल्थस के पश्चात् जनसंख्या से सम्बन्धित अनेक सामाजिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ। इन सामाजिक सिद्धान्तों में हेनरी जार्ज (Henery George), ड्यूमां (Dumont) तथा कार्ल मार्क्स (Carl Marx) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी संक्षिप्त चर्चा अग्रिम पंक्तियों में की गयी है।
बी०एस० गुहा के अनुसार भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण (Classification of Indian species by B.S. Guha)

भारतीय मानवविज्ञान विभाग के पूर्व निदेशक डा० बी०एस० गुहा (B.S. Guha) ने भारतीय मानव प्रजातियों का वर्गीकरण उनके शारीरिक लक्षणों पर वैज्ञानिक तथ्यों का सहारा लेते हुए तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया। जिसका प्रकाशन ‘जनसंख्या में प्रजातीय तत्व’ (Racial Elements in the Population) नाम से 1944 में हुआ।