क्या होता है सुपर मून, ब्लू मून और ब्लड मून (What is Super Moon, Blue Moon and Blood Moon)
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क्या आपने कभी रात के आसमान में एक विशेष चांद को चमकते हुए देखा है और सोचा है कि यह सामान्य से अधिक चमकीला या बड़ा क्यों है? यह सुपर मून हो सकता है। और क्या आपने किसी महीने में दो बार पूर्णिमा देखी है? इसे ब्लू मून कहा जाता है।
डेविस का ढाल पतन सिद्धान्त (Slope Decline Theory by Davis)
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डेविस महोदय ने ही ढालों के विकास में चक्रीय व्यवस्था को प्रतिपादित किया था। इनके अनुसार अपरदन चक्र की युवावस्था में नदी द्वारा निम्नवर्ती अर्थात् लम्बवत अपरदन तथा अपक्षय के कारण तीव्र उत्तल ढाल का विकास होता है। इस अवस्था में ढाल का निवर्तन कम होता है तथा पतन बिल्कुल नहीं होता है।
ढालों का वर्गीकरण (Classification of Slopes)
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कुछ विद्वान सरलीकरण के लिए ढालों को क्लिफ ढाल, उत्तल, अवतल, सरल रेखी ढाल इत्यादि प्रकारों में विभाजित कर लेते हैं तथा जब इनमें से एक से अधिक ढाल एक साथ मिलते हैं तो उनको संयुक्त ढाल (composite slope) कहते हैं। यह विभाजन न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि ये ढाल के प्रकार न होकर उनके तत्त्व या अंग होते हैं।
अपवाह तंत्र: अर्थ तथा प्रमुख अपवाह तंत्र (Drainage System: Meaning and Major Drainage Systems)
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अपवाह तंत्र (drainage system) का संबंध सरिताओं की उत्पत्ति तथा उनके समय के साथ विकास से होता है जबकि अपवाह प्रतिरूप का संबंध किसी क्षेत्र विशेष की सरिताओं के ज्यामितीय रूप तथा स्थानिक व्यवस्था (spatial arrangement) से होता है।
ढाल का अर्थ, महत्त्व एवं तत्त्व (Meaning, Importance and Elements of Slope)
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ढाल धरातल पर पाए जाने वाले स्थलस्वरूपों के प्रमुख अंग हैं, जो कि पहाड़ी तथा घाटी के मध्य उपरिमुखी या अधोमुखी झुकाव होते हैं। इनका आकार अवतल, उत्तल, सरल रेखी (rectilinear), मुक्त पृष्ठ (free face) या तीव्र दीवालनुमा हो सकता है। समतल मैदानी भाग को छोड़कर ढाल सभी जगह देखे जा सकते हैं तथा पहाड़ी भागों में इनका विकास सर्वाधिक होता है।
डेली का महाद्वीपीय फिसलन सिद्धान्त (Sliding Continent Theory of Daly)
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डेली महोदय ने बताया कि पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद शीघ्र ही मौलिक तरल पृथ्वी के ऊपर एक पपड़ी के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसे उन्होंने आद्य पपड़ी (primitive crust) बताया है। भूमध्यरेखा तथा ध्रुवों के पास कठोर स्थलखण्ड थे, जिन्हें डेली ने भूमध्यरेखीय तथा ध्रुवीय गुम्बद बताया है।
जेफ्रीज का तापीय संकुचन सिद्धान्त (Thermal Contraction Theory of Jeffreys)
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जेफ्रीज के अनुसार पृथ्वी में कई सकेन्द्रीय परतें (concentric shells) पायी जाती हैं। पृथ्वी के ठंडा होने की क्रिया परत के रूप में होती है, परन्तु धरातल से 700 किमी० की गहराई तक ही तापमान में कमी के कारण पृथ्वी ठंडी होती है। धरातल में 700 किमी० के बाद वाला भाग (केन्द्र तक) इस परिवर्तन से अप्रभावित रहता है।
कोबर का पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धान्त (Geosyncline Orogen Theory of Kober)
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प्रसिद्ध जर्मन विद्वान कोबर ने वलित पर्वतों की उत्पत्ति की व्याख्या के लिए ‘भूसन्नति सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया। उनका प्रमुख उद्देश्य प्राचीन दृढ़ भूखण्डों तथा भूसन्नतियों में सम्बन्ध स्थापित करना था। तथा पर्वत निर्माण की क्रिया को समझाने का भरसक प्रयास किया है।
पवन का अपरदन कार्य (Wind Erosional Work)
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अपरदन के अन्य कारकों के समान ही पवन भी अपरदन व निक्षेपण का एक प्रमुख कारक है। लेकिन पवन का परिवहन कार्य नदियों या हिमनदियों से अलग होता है। क्योंकि पवन के चलने की दिशाऔर स्थित होती है इसलिए पवन द्वारा परिवहन कार्य किसी भी रूप में तथा किसी भी दिशा में हो सकता है।
नदी डेल्टा (River Delta)
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डेल्टा नदी के द्वारा बनाए जाने वाले रचनात्मक स्थलरूपों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रत्येक नदी जब सागर या झील में अपना पानी गिराती है, तब उसके मार्ग में अवरोध आने तथा जल की गति कम होने के कारण नदी के साथ बहने वाले अवसाद का जमाव होने लगता है। जिसके परिणामस्वरूप एक विशेष प्रकार के स्थलरूप की उत्पत्ति होती है, जो डेल्टा कहलाता है।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त (Plate Tectonic Theory)
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पृथ्वी की बाह्य ठोस और कठोर परत को भू-पृष्ठ कहा जाता है। इसकी मोटाई सब जगह एक समान नहीं है। यह महासागरों के नीचे कहीं केवल 5 किलोमीटर मोटी है, परन्तु कुछ पर्वतों के नीचे इसकी मोटाई 70 किलोमीटर तक है। भू-पृष्ठ के नीचे सघन शैलें पाई जाती हैं, जिन्हें मेंटल (Mantle) कहते हैं।
नदी का निक्षेपण कार्य (Depositional Work of River)
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यदि नदी का अपरदन कार्य विनाशी होता है तो निक्षेप कार्य रचनात्मक होता है। अपरदन के समय नदियाँ स्थलखण्ड को काटकर, घिसकर या चिकना बनाकर विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण करती हैं। इसके विपरीत निक्षेपण कार्य में तरह-तरह के मलवा अवसाद को विभिन्न रूपों में जमा करके विचित्र स्थलरूपों की रचना करती हैं।
सारगैसो सागर (Sargasso Sea)
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सारगैसो सागर का विस्तार सागरीय घास के विस्तार तथा धाराओं की चक्रगति (gyre) के आधार पर निश्चित किया जाता है। मार्मर के अनुसार सारगैसो का विस्तार 20° तथा 40° उत्तरी अक्षांशों तथा 35° से 75° प० देशान्तरों के मध्य में पाया जाता है।
नदी अपरदन द्वारा उत्पन्न स्थलाकृतियाँ (Erosional Landforms Created by River)
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नदी अपने अपरदन कार्य द्वारा V आकार की घाटी, गार्ज तथा कैनियन, जल प्रपात, जलगर्तिका, अवनमन कुण्ड, संरचनात्मक सोपान, नदी वेदिका, नदी विसर्प, समप्राय मैदान आदि का निर्माण करती है। इन स्थलाकृतियों के बारे नीचे विस्तार से जानकारी दी गई है।
नदी का परिवहन कार्य (River Transport Work)
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नदियों द्वारा ऊँचे भागों से अपरदित चट्टान चूर्ण या मलबा (debris) का एक स्थान से दूसरे स्थान तक बहाकर ले जाना नदी का परिवहन कार्य कहलाता है। ऐसा नहीं है कि नदियाँ केवल अपरदन द्वारा प्राप्त चट्टान चूर्ण या मलबे का परिवहन करती है, अपितु अपक्षय द्वारा विघटित एवं वियोजित पदार्थों तथा भूमि स्खलन (landslide), अपवात (slumping) तथा भूमि सर्पण (land creep) आदि द्वारा प्राप्त मलबे का भी परिवहन किया जाता है।