ईरान का परमाणु कार्यक्रम पिछले दो दशकों से वैश्विक राजनीति और सुरक्षा का केंद्र बना हुआ है। वर्तमान में फिर से एक बार में यह मुद्दा सुर्खियों में है। JCPOA 2025, IAEA की चेतावनी, और अमेरिका-ईरान वार्ता के रद्द होने जैसे घटनाक्रम ने इसे और अधिक संवेदनशील बना दिया है। इस लेख में हम जानेंगे कि इस परमाणु विवाद के पीछे कौन-कौन से देश हैं, और उनका क्या स्वार्थ या भूमिका है।

ईरान (Iran): केंद्र में क्यों है?
ईरान दावा करता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम केवल ऊर्जा उत्पादन और चिकित्सा उपयोग जैसे शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है। लेकिन पश्चिमी देश, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और इज़राइल, इसे परमाणु हथियार विकसित करने की कोशिश के रूप में देखते हैं।
उनका कहना है कि ईरान ने यूरेनियम संवर्धन (Uranium Enrichment) की सीमा को पार कर IAEA के दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया है। 2023 से 2025 के बीच, ईरान ने यूरेनियम संवर्धन स्तर को 60% तक बढ़ा दिया है, जो हथियार निर्माण के बेहद करीब माना जाता है। इस कारण से उस पर संयुक्त राष्ट्र (UN) और अमेरिका द्वारा कई बार प्रतिबंध लगाए गए हैं।
साथ ही, ईरान का व्यवहार उसके पड़ोसी देशों, खासकर सऊदी अरब और इज़राइल के लिए चिंता का विषय रहा है। वह लगातार अपने रक्षात्मक अधिकारों की बात करता है, जबकि पश्चिम उसे संभावित खतरे के रूप में देखता है।

अमेरिका (USA): अधिकतम दबाव की नीति
ट्रम्प प्रशासन ने मई 2018 में JCPOA (Joint Comprehensive Plan of Action) से बाहर होकर ईरान पर “Maximum Pressure Policy” लागू की थी। इसके तहत ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए। अमेरिका का मकसद था कि ईरान को उसके परमाणु कार्यक्रम से पीछे हटने के लिए मजबूर किया जाए।
बाइडन प्रशासन ने वार्ता फिर शुरू करने की कोशिश की, लेकिन इसी वर्ष मस्कट में होने वाली वार्ता इज़राइली हमलों के कारण रद्द हो गई। अमेरिका ने इस हमले में अपनी भागीदारी से इनकार किया, लेकिन इसके बावजूद वार्ता का माहौल बिगड़ गया।
इसके अलावा, अमेरिका का ईरान पर साइबर हमलों और गुप्त अभियानों में शामिल होने का भी आरोप है, जैसे कि स्टक्सनेट वायरस की घटना, जिसने ईरान के परमाणु प्लांट को प्रभावित किया था।
इज़राइल (Israel): सुरक्षा की चिंता या रणनीतिक चाल?
इज़राइल लंबे समय से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को खतरे के रूप में देखता है। हाल ही में तेहरान एयरपोर्ट पर हुए धमाकों और इज़राइल की संभावित भागीदारी ने इस तनाव को बढ़ा दिया है। इज़राइल का सुरक्षा सिद्धांत कहता है कि किसी भी संभावित दुश्मन के पास परमाणु हथियार नहीं होने चाहिए।
इज़राइल का मानना है कि अगर ईरान परमाणु हथियार बना लेता है, तो यह पूरे मध्य पूर्व की स्थिरता के लिए खतरा होगा। यही वजह है कि वह कूटनीतिक प्रयासों से इतर, सैन्य कार्यवाही में भी विश्वास रखता है। 2020 में हुए इरानी वैज्ञानिक मोहसिन फखरीज़ादे की हत्या को भी इज़राइल से जोड़ा गया था।
इज़राइल, अमेरिका के साथ मिलकर बार-बार यह चेतावनी देता रहा है कि वह किसी भी परिस्थिति में ईरान को परमाणु शक्ति नहीं बनने देगा।
रूस और चीन: चुपचाप समर्थक या मध्यस्थ?
रूस और चीन, ईरान के महत्वपूर्ण व्यापारिक और रणनीतिक साझेदार हैं। इन दोनों देशों ने JCPOA को फिर से सक्रिय करने का समर्थन किया है। लेकिन उनका दृष्टिकोण पश्चिमी देशों से अलग है। वे ईरान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के खिलाफ हैं।
रूस ने कहा है कि “ईरान को सुरक्षा गारंटी चाहिए ना कि धमकी।” वह मध्य-पूर्व में अमेरिकी हस्तक्षेप का विरोध करता है और ईरान को अमेरिका के सैन्य वर्चस्व से बचाने के पक्ष में है। वहीं चीन ने अमेरिका से ईरान पर लगे प्रतिबंध हटाने की बात की है ताकि वार्ता आगे बढ़ सके। चीन, ईरान के साथ दीर्घकालिक ऊर्जा और व्यापार समझौते कर चुका है।
इसके अलावा, चीन और रूस इस मुद्दे पर अमेरिका के खिलाफ एक रणनीतिक मोर्चा भी बना रहे हैं, जो वैश्विक भू-राजनीति को और जटिल बना देता है।
यूरोपीय संघ (EU): परमाणु डील का संरक्षक
जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देश JCPOA के प्रमुख यूरोपीय हस्ताक्षरकर्ता हैं। इनका प्रयास है कि वार्ता दोबारा शुरू हो और परमाणु हथियारों के प्रसार को रोका जा सके। इन देशों का मानना है कि कूटनीति ही एकमात्र रास्ता है जिससे ईरान को नियंत्रित किया जा सकता है।
यूरोपीय संघ ने बार-बार अमेरिका और ईरान दोनों से अपील की है कि वे संयम बरतें और आपसी विश्वास बनाएं। हालांकि यूरोपीय देशों की भूमिका सीमित रही है, फिर भी उन्होंने कई बार मध्यस्थता के प्रयास किए हैं, जैसे कि स्विट्जरलैंड में गुप्त बातचीत आयोजित कराना।
IAEA (अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी): निगरानीकर्ता की भूमिका में
IAEA ने हाल ही में रिपोर्ट दी है कि ईरान ने यूरेनियम को 60% तक संवर्धित किया है, जो कि हथियार-स्तर से बहुत ही नजदीक है। IAEA की चेतावनी ने वैश्विक चिंता को और गहरा कर दिया है। एजेंसी का कहना है कि ईरान ने कई साइट्स तक निरीक्षण की अनुमति नहीं दी है, जिससे उसके इरादों पर संदेह और गहराता है।
IAEA की भूमिका केवल तकनीकी निगरानी तक सीमित नहीं है, बल्कि उसकी रिपोर्टें कूटनीतिक दबाव और निर्णयों का आधार भी बनती हैं। यही कारण है कि उसके निष्कर्षों को संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक शक्तियाँ गंभीरता से लेती हैं।

निष्कर्ष
ईरान का परमाणु विवाद अब केवल दो देशों का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि यह एक वैश्विक कूटनीतिक संकट बन चुका है। जहां एक ओर अमेरिका, इज़राइल और यूरोपीय देश इसे रोकने के प्रयास में हैं, वहीं रूस और चीन एक अलग रणनीति अपनाते दिखते हैं। आने वाले दिनों में JCPOA 2025 की स्थिति, IAEA की रिपोर्ट, और सैन्य तनाव इस विवाद को किस दिशा में ले जाएंगे, यह देखना बाकी है।
यह ज़रूरी है कि सभी संबंधित देश पारदर्शिता, संवाद और शांतिपूर्ण समाधान की ओर बढ़ें, ताकि परमाणु हथियारों के प्रसार को रोका जा सके और क्षेत्रीय स्थिरता बनी रहे।