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Table of contents
- अल्फ्रेड वेबर का औद्योगिक अवस्थिति सिद्धान्त (Alfred Weber’s Theory of Industrial Location) को समझने के लिए महत्वपूर्ण शब्दावली
- वेबर की अभिधारणाएँ तथा मान्यताएँ (Weber’s Premises and Postulates)
- अल्फ्रेड वेबर का औद्योगिक अवस्थिति सिद्धान्त की व्याख्या (Description of Alfred Weber’s Theory of Industrial Location)
इस लेख में आप अल्फ्रेड वेबर का औद्योगिक अवस्थिति सिद्धान्त (Alfred Weber’s Theory of Industrial Location) के बारे में विस्तार से जानेंगे
अल्फ्रेड वेबर का औद्योगिक अवस्थिति सिद्धान्त (Alfred Weber’s Theory of Industrial Location), उद्योगों के स्थान निर्धारण से संबंधित एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसे प्रसिद्ध जर्मन अर्थशास्त्री अल्फ्रेड वेबर ने प्रस्तुत किया था। वे औद्योगिक स्थान चयन का सिद्धान्त देने वाले पहले विद्वान माने जाते हैं। वर्ष 1909 में उन्होंने जर्मन भाषा में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Über den Standort der Industrien’ प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया। चूंकि यह पुस्तक जर्मन भाषा में थी, इसलिए यह आरंभ में अधिक प्रसिद्ध नहीं हो सकी। बाद में 1929 में इसका अंग्रेजी में अनुवाद ‘Theory of Location of Industries’ के नाम से हुआ, जिसके बाद यह सिद्धान्त अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ।
इस सिद्धान्त के पीछे मुख्य विचार यह था कि उद्योगों को ऐसे स्थान पर स्थापित किया जाए, जहाँ परिवहन लागत, श्रम लागत और अन्य खर्च न्यूनतम हों। इस विचार की नींव पहले विलहेम लौन्हार्ट नामक विद्वान ने 1855 से 1882 के बीच रखी थी। उन्होंने ‘न्यूनतम लागत सिद्धान्त’ का विचार प्रस्तुत किया था। अल्फ्रेड वेबर ने इसी विचार को आगे बढ़ाया और एक व्यवस्थित सिद्धान्त के रूप में विकसित किया।
अल्फ्रेड वेबर का औद्योगिक अवस्थिति सिद्धान्त (Alfred Weber’s Theory of Industrial Location) को समझने के लिए महत्वपूर्ण शब्दावली
वेबर के सिद्धांत को समझने के लिए कुछ खास शब्दों और कल्पनाओं को जानना ज़रूरी है। ये शब्द उद्योगों के स्थान चयन (स्थानीकरण) को समझने में मदद करते हैं। नीचे इन्हें सरल भाषा में समझाया गया है:
सर्वत्र उपलब्ध पदार्थ (Ubiquities):
ये वे सामान होते हैं जो हर जगह आसानी से मिल जाते हैं, जैसे – मिट्टी, पानी, हवा, ईंट-पत्थर आदि। इनका मूल्य हर जगह लगभग एक जैसा होता है और इनका उद्योग की जगह तय करने में खास असर नहीं पड़ता।
स्थानीय (Fixed) या स्थान विशेष पर मिलने वाले पदार्थ:
ये वे चीजें हैं जो किसी खास जगह ही मिलती हैं, जैसे – खनिज, ईंधन आदि। ये उद्योग की जगह तय करने में असर डालते हैं। इन्हें दो भागों में बांटा गया है:
(क) शुद्ध पदार्थ (Pure Materials):
इनसे बनी वस्तु का वजन कच्चे माल के वजन के बराबर ही होता है। जैसे – सूत से बना कपड़ा। ऐसे उद्योग कच्चे माल की जगह या बाजार, दोनों में से कहीं भी लगाए जा सकते हैं।
(ख) भार घटाने वाले पदार्थ (Gross Materials):
ये वो चीजें हैं जिनका वजन उत्पादन के बाद घट जाता है। जैसे – गन्ने से चीनी, लकड़ी से कागज़, लौह अयस्क से लोहा। ऐसे उद्योग वहीं लगाए जाते हैं जहाँ कच्चा माल आसानी से मिल सके क्योंकि ज्यादा वजन ढोने से लागत बढ़ती है।
पदार्थ सूचकांक (Material Index)
यह बताता है कि कच्चे माल के मुकाबले तैयार सामान का वजन कितना है।
सूत्र –
पदार्थ सूचकांक = तैयार वस्तु का भार / स्थानीय कच्चे माल का भार
अगर यह सूचकांक 1 से ज़्यादा है, तो तैयार सामान भारी है; अगर 1 के बराबर है, तो दोनों का वजन बराबर है; और अगर 1 से कम है, तो कच्चा माल ज़्यादा भारी है।
स्थानीयकरण भार (Locational Weight):
यह बताता है कि एक यूनिट सामान तैयार करने के लिए कितना सामान लाना और ले जाना पड़ता है। अगर उद्योग ऐसे पदार्थों से बना है जो हर जगह मिलते हैं, तो सिर्फ तैयार माल का वजन ढोना होता है – इसलिए भार 1 होता है।
अगर शुद्ध पदार्थ है, तो तैयार माल और कच्चे माल दोनों का वजन समान होता है – इसलिए कुल भार 2 होता है।
यह सारी बातें वेबर के सिद्धांत को समझने के लिए आधार बनाती हैं और बताती हैं कि कोई उद्योग कहाँ लगाया जाए ताकि लागत कम और लाभ ज़्यादा हो।
वेबर की अभिधारणाएँ तथा मान्यताएँ (Weber’s Premises and Postulates)
वेबर ने अपने उद्योग स्थान निर्धारण सिद्धांत को समझाने के लिए कुछ प्रमुख मान्यताओं और अभिधारणाओं का उपयोग किया। उन्होंने यह माना कि जिस स्थान पर उद्योग लगाना है,
- वह एक अलग-थलग क्षेत्र है जहाँ की जलवायु, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक संसाधन, तकनीकी ज्ञान और जनसंख्या की जाति व संस्कृति समान होती है।
- इसके अलावा, यह क्षेत्र एक ही प्रशासन के अधीन होता है।
- वेबर ने यह भी बताया कि कुछ संसाधन जैसे हवा, पानी और रेत हर जगह मिल जाते हैं, जबकि कोयला और लौह अयस्क जैसे खनिज केवल कुछ विशेष स्थानों पर ही पाए जाते हैं। कच्चे माल के स्रोतों की स्थिति पहले से ज्ञात होती है।
- श्रमिक हर स्थान पर उपलब्ध नहीं होते, बल्कि कुछ खास क्षेत्रों में ही रहते हैं और इन स्थानों पर श्रमिकों की संख्या असीमित मानी जाती है।
- परिवहन लागत केवल माल के वजन और दूरी पर निर्भर करती है – यानी वजन और दूरी जितनी ज्यादा होगी, खर्च उतना ही अधिक होगा।
इन मान्यताओं के आधार पर वेबर ने बताया कि किसी उद्योग की स्थापना तीन प्रमुख ताकतों पर निर्भर करती है –
- पहला, परिवहन लागत जो कच्चे माल और उत्पादों की आवाजाही पर खर्च होती है;
- दूसरा, श्रम लागत यानी मजदूरों को देने वाला वेतन और सुविधाएँ; और तीसरा,
- समूहन या एकत्रीकरण की शक्ति, जहाँ उद्योग एक-दूसरे के पास लगते हैं ताकि लागत घटे और सहयोग बढ़े।
Also Read: परिवहन लागत
अल्फ्रेड वेबर का औद्योगिक अवस्थिति सिद्धान्त की व्याख्या (Description of Alfred Weber’s Theory of Industrial Location)
परिवहन की लागत का महत्व
वेबर महोदय ने यह समझाने की कोशिश की कि किसी भी उद्योग को कहाँ स्थापित किया जाए ताकि परिवहन (transport) में आने वाला खर्च सबसे कम हो। उनके अनुसार, उद्योग की अवस्थिति तय करते समय सबसे पहले हमें यह देखना चाहिए कि कच्चा माल और तैयार माल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने में कितना खर्च आएगा। इसके बाद यह देखा जाता है कि श्रमिकों की उपलब्धता या उद्योगों के समूह से क्या अतिरिक्त लाभ मिल सकता है।
1. एक बाजार और एक कच्चा माल वाली स्थिति:
इसमें वेबर ने तीन स्थितियाँ बताई हैं:
- स्थिति 1: कच्चा माल सर्वत्र सुलभ (Ubiquitous)
यदि कच्चा माल हर जगह आसानी से मिल जाता है, तो उद्योग को बाजार के पास स्थापित करना फायदेमंद होता है, क्योंकि इस स्थिति में केवल उत्पाद को बाजार तक पहुँचाने का खर्च होता है, कच्चा माल पहले से ही आसपास उपलब्ध होता है।
उदाहरण: बेकरी उद्योग, जहाँ आटा, चीनी आदि हर जगह मिल जाते हैं, और उत्पादन का माल (जैसे केक या ब्रेड) जल्दी बाजार तक पहुँचना चाहिए। - स्थिति 2: कच्चा माल स्थानिक (Fixed) और शुद्ध (Pure)
अगर कच्चा माल किसी निश्चित जगह पर मिलता है और वह निर्माण प्रक्रिया में अपना वजन नहीं खोता, तो उद्योग बाजार या कच्चे माल के पास कहीं भी लगाया जा सकता है क्योंकि परिवहन व्यय एक समान रहेगा।
उदाहरण: वस्त्र उद्योग, तेलशोधन उद्योग, इंजीनियरिंग उद्योग आदि। - स्थिति 3: कच्चा माल स्थानिक और भार-हासमान (Gross)
जब कच्चा माल भारी हो और उत्पादन प्रक्रिया में उसका वजन कम हो जाता हो, तो उद्योग को कच्चे माल के स्रोत के पास स्थापित करना उचित होता है ताकि भारी माल को दूर ले जाने का खर्च बचाया जा सके।
उदाहरण: लोहा-इस्पात उद्योग, चीनी उद्योग, कागज उद्योग, एल्यूमिनियम उद्योग।

2. एक बाजार और दो कच्चे माल वाली स्थिति:
इस स्थिति में भी चार संभावनाएँ होती हैं:
- स्थिति 1: दोनों कच्चे माल सर्वत्र सुलभ
ऐसी स्थिति में उद्योग को बाजार के पास लगाना सही होता है क्योंकि यहाँ सभी कच्चे माल और उत्पाद बाजार के पास ही हैं।
उदाहरण: सामान्य निर्माण उद्योग जहाँ दोनों सामग्री स्थानीय रूप से मिलती हैं। - स्थिति 2: एक कच्चा माल सर्वत्र सुलभ, दूसरा स्थानिक और दोनों शुद्ध
उद्योग को बाजार के पास लगाया जाएगा क्योंकि केवल एक कच्चे माल को लाने का खर्च लगेगा और तैयार माल का परिवहन व्यय एक जैसा रहेगा।
उदाहरण: खाद्य प्रसंस्करण उद्योग जहाँ चीनी (सर्वत्र सुलभ) और फल (स्थानिक) जैसे कच्चे माल होते हैं। - स्थिति 3: दोनों कच्चे माल स्थानिक और शुद्ध
ऐसी स्थिति में उद्योग को बाजार के पास लगाना सबसे उचित होता है क्योंकि दोनों कच्चे माल को वहाँ लाने और फिर माल को बेचने का कुल खर्च सबसे कम होता है। देखें चित्र 1
लेकिन यदि एक कच्चे माल का मार्ग दूसरे के स्रोत से होकर जाता हो, तो वह स्थान भी उपयुक्त हो सकता है। - स्थिति 4: दोनों कच्चे माल स्थानिक और भार-हासमान
यह सबसे जटिल स्थिति है। इसमें वेबर ने “अवस्थिति त्रिभुज” (Locational Triangle) की संकल्पना दी। इसमें दो कच्चे माल के स्रोत और एक बाजार के बीच ऐसा स्थान खोजा जाता है जहाँ कुल परिवहन व्यय सबसे कम हो। देखें चित्र 2
उदाहरण से समझें: यदि दोनों कच्चे माल की सालाना माँग 2000 टन है और उनका आधा-आधा वजन उत्पादन प्रक्रिया में नष्ट हो जाता है, तो अलग-अलग स्थानों पर उद्योग स्थापित करने पर परिवहन व्यय इस प्रकार होगा:
1. यदि उद्योग बाजार (M) पर स्थापित किया जाता है तो कुल परिवहन लागत निम्न प्रकार होगी :
(a) R₁ से बाजार (M) तक परिवहन व्यय = 2,000 टन × 100 कि.मी. = 2,00,000 टन कि.मी.
(b) R₂ से बाजार (M) तक परिवहन व्यय = 2,000 टन × 100 कि.मी. = 2,00,000 टन कि.मी.
कुल परिवहन व्यय (a + b) 2,00,000+2,00,000 = 4,00,000 टन कि.मी.
2. यदि उद्योग किसी भी कच्चे माल के स्रोत (R, अथवा R₂) पर स्थापित किया जाए तो परिवहन लागत निम्न प्रकार होगी
(मान लो इस स्थिति में उद्योग R, अथवा R₂ पर स्थापित किया गया है।)
(a) R₂ से R, तक परिवहन व्यय = 2,00,000 टन कि.मी.
= 2,000 टन 100 कि.मी.
(b) उद्योग R, पर स्थित होने के कारण 50% भार उत्पादन प्रक्रिया में नष्ट हो जाने के पश्चात् कुल माल का भार 2,000 टन होगा।
इसलिए परिवहन व्यय R, से बाजार तक = 2,000 टन × 100 कि.मी. = 2,00,000 टन कि.मी. 2,00,000+2,00,000
कुल परिवहन व्यय (a + b) = 4,00,000 टन कि.मी.
(यदि उद्योग R, पर स्थापित न करके R₂ पर स्थापित किया जाए तो भी परिवहन व्यय वही अर्थात् 4,00,000 टन कि.मी. होगा।)
3. यदि उद्योग को कच्चे माल के दोनों स्रोतों के मध्यवर्ती स्थान (X) पर स्थापित किया जाए तो परिवहन व्यय इस प्रकार होगा :
(a) R, से X तक परिवहन व्यय = 2,000 टन × 50 कि.मी. = 1,00,000 टन कि.मी.
(b) R₂ से X तक परिवहन व्यय = 2,000 टन × 50 कि.मी. = 1,00,000 टन कि.मी.
(c) उत्पादित वस्तुओं के 2,000 टन भार को X स्थान से बाजार M तक पहुँचाने के लिए परिवहन व्यय = 2,000 टन × 87 कि.मी. = 1,74,000 टन कि.मी.
कुल परिवहन व्यय (a+b+c) 1,00,000+1,00,000+ 1,74,000 = 3,74,000 टन कि.मी.
निष्कर्ष: X स्थान सबसे सस्ता पड़ता है, इसलिए उद्योग वहीं स्थापित किया जाएगा।
3. अलग-अलग भार हानि और कच्चे माल की मात्रा का प्रभाव:
अगर दो कच्चे माल अलग-अलग मात्रा में प्रयोग होते हैं और उनकी निर्माण प्रक्रिया में भार हानि भी अलग-अलग होती है, तो उद्योग वहाँ लगाया जाएगा जहाँ ज्यादा मात्रा और ज्यादा हानि वाले कच्चे माल का स्रोत हो।
उदाहरण: लोहा-इस्पात उद्योग, जिसमें लौह अयस्क और कोयले की मात्रा व हानि अलग होती है। इसलिए इसे अधिकतर लौह अयस्क के स्रोत के पास लगाया जाता है।
4. अवस्थिति त्रिभुज से आगे बढ़कर अवस्थिति चतुर्भुज:
वेबर के सिद्धांत को और जटिल परिस्तिथियों में भी अपनाया जा सकता है। जैसे यदि दो बाजार और दो कच्चे माल हों, या तीन बाजार और एक कच्चा माल हो, या एक बाजार और तीन कच्चे माल हों – तब भी किसी ज्यामितीय मॉडल (जैसे Locational Quadrilateral) की सहायता से उस स्थान का निर्धारण किया जा सकता है जहाँ परिवहन व्यय न्यूनतम हो।
श्रम की लागत का महत्व (Labour Cost का महत्त्व)
वेबर ने यह बताया कि श्रम की लागत (मजदूरी) भी उद्योग की जगह तय करने में बहुत असर डालती है। उन्होंने कहा कि अलग-अलग स्थानों पर श्रम की लागत अलग हो सकती है, और इससे उद्योग का स्थान बदल सकता है। अगर किसी जगह माल ले जाने का खर्च ज्यादा हो, लेकिन वहाँ मजदूरी कम हो, तो कुल लागत में संतुलन आ सकता है और वह स्थान उद्योग के लिए लाभदायक हो सकता है।
किसी भी स्थान पर फैक्टरी लगाने से पहले मालिक यह सोचता है कि कितना पैसा माल ढुलाई (ट्रांसपोर्ट) पर खर्च करना है और कितना मजदूरी पर। इस सवाल का हल वेबर ने “आइसोडापेन” रेखा के जरिये दिया। यह रेखा उन बिंदुओं को जोड़ती है जहाँ कुल खर्च (ट्रांसपोर्ट + मजदूरी) समान होता है। चित्र 6.15 में इसका एक उदाहरण दिखाया गया है, जिसमें एक बाज़ार (Market-M) और एक कच्चे माल का स्रोत (Source of Raw Material – SR) दर्शाया गया है। इसे समझने के लिए वेबर ने दो बातें मानीं:
- कच्चे माल और तैयार माल दोनों के लिए प्रति टन प्रति किलोमीटर ढुलाई खर्च एक जैसा है। M और SR से खींचे गए गोल वृत्त दिखाते हैं कि किसी स्थान से M या SR तक माल पहुँचाने में कितना खर्च होगा। हर वृत्त प्रति टन माल के एक यूनिट ट्रांसपोर्ट खर्च को दर्शाता है।
- कच्चा माल ऐसा है जो उत्पादन प्रक्रिया में 50% वजन कम कर देता है। मतलब, एक टन तैयार माल बनाने के लिए दो टन कच्चा माल चाहिए।

अगर फैक्टरी SR पर लगाई जाती है, तो तैयार माल को M तक पहुँचाने में 10 यूनिट खर्च आएगा। अगर फैक्टरी M पर लगाई जाती है, तो दो टन कच्चा माल SR से लाने में 20 यूनिट खर्च आएगा, क्योंकि दूरी भी उतनी ही है।
अब मान लो फैक्टरी को X स्थान पर लगाया गया है, जो दोनों के बीच में है। वहाँ दो टन कच्चा माल लाने में 8 यूनिट और एक टन तैयार माल ले जाने में 10 यूनिट खर्च होता है। कुल खर्च = 18 यूनिट। इसी तरह Y स्थान पर दो टन कच्चे माल को 6.5 यूनिट दूरी से लाने में 13 यूनिट और तैयार माल को 5 यूनिट दूरी से ले जाने में 5 यूनिट खर्च होगा। कुल = 13 + 5 = 18 यूनिट। इसलिए X और Y जैसे स्थानों को जोड़ने वाली मोटी रेखा को आइसोडापेन कहते हैं।
अगर किसी उद्योग का स्थान केवल ट्रांसपोर्ट खर्च से तय किया जाए, तो आइसोडापेन का कोई खास फायदा नहीं है। लेकिन जब श्रम लागत जैसी दूसरी बातें जुड़ती हैं, तब आइसोडापेन बहुत उपयोगी होती है। इससे यह पता चलता है कि अगर किसी जगह ट्रांसपोर्ट खर्च ज्यादा है, तो वहाँ की सस्ती मजदूरी या अन्य लाभों से उस कमी को कैसे पूरा किया जा सकता है।
जैसा कि चित्र 3 में दिखाया गया है, आइसोडापेन पर सभी स्थानों पर ट्रांसपोर्ट खर्च 18 यूनिट है, जो SR के खर्च से 8 यूनिट ज्यादा है। इसलिए इन स्थानों पर श्रम लागत में कम से कम 8 यूनिट की बचत होनी चाहिए, तभी वहाँ उद्योग लगाना फायदेमंद होगा।
समूहन अथवा एकत्रीकरण (Agglomeration)
जिस प्रकार वेबर ने उद्योग की स्थिति तय करने में परिवहन खर्च और श्रम लागत को महत्वपूर्ण माना, उसी तरह उन्होंने समूहन (या एकत्रीकरण) को भी महत्वपूर्ण माना। उनके अनुसार समूहन तीन प्रकार का होता है:
(i) जब किसी एक फैक्टरी का विस्तार होता है, जिससे बड़े स्तर पर उत्पादन किया जा सके और लागत कम हो।
(ii) जब एक ही तरह के कई कारखाने एक स्थान पर होते हैं, जिससे तकनीकी सुविधाएँ और माल बेचने में आसानी होती है।
(iii) जब अलग-अलग प्रकार के उद्योग एक साथ किसी स्थान पर होते हैं, जिससे सभी को साझा सुविधाएँ जैसे परिवहन आदि मिलती हैं।
वेबर के अनुसार अगर मान लिया जाए कि श्रम लागत का कोई असर नहीं है और उद्योग को उस स्थान से हटाकर एकत्रीकरण वाले स्थान की ओर ले जाया जाए तो वहाँ परिवहन खर्च जरूर बढ़ेगा, लेकिन समूहन से होने वाला फायदा उस बढ़े हुए खर्च से ज्यादा या बराबर हो सकता है। इसलिए उद्योग को वहाँ लगाया जा सकता है जहाँ समूहन से ज्यादा लाभ मिले।
चित्र 4 में A, B और C तीन अवस्थिति त्रिकोण दर्शाए गए हैं। हर त्रिकोण में परिवहन खर्च के हिसाब से एक सबसे अच्छा स्थान है। इन बिंदुओं को केंद्र मानकर तीन आइसोडापेन रेखाएँ खींची गई हैं, जिनका मान 5 है। अगर समूहन से 5 इकाई या उससे ज्यादा लाभ हो, तो कारखाना इन तीन आइसोडापेन के बीच वाले क्षेत्र A ‘B’ C’ में लगाया जा सकता है। इस क्षेत्र को ही “एकत्रीकरण क्षेत्र” कहा जाता है।
औद्योगिक समूहन से उद्योगों को कई तरह की सुविधाएँ मिलती हैं, जैसे कि साझा परिवहन, संचार और अन्य सुविधाएँ। इससे पूँजी, माल और श्रमिकों का आवागमन तेज होता है, जिससे सभी उद्योगों को फायदा होता है।
Also Read: उद्योगों की स्थिति को प्रभावित करने वाले कारक
वेबर के विचारों से मिलने वाले मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं:
- उद्योग कहाँ लगेगा, यह परिवहन खर्च की तुलना पर निर्भर करता है, न कि उसके कुल खर्च पर।
- उद्योग उन स्थानों की ओर झुकते हैं जहाँ भारी कच्चा माल होता है।
- उद्योग हमेशा शुद्ध कच्चे माल की जगह, बाजार के पास लगते हैं।
- जिन उद्योगों का पदार्थ सूचकांक अधिक होता है वे कच्चे माल की ओर और कम सूचकांक वाले बाजार की ओर झुकते हैं।
- जब परिवहन खर्च और श्रम या एकत्रीकरण से लाभ बराबर होते हैं, तो उद्योग श्रम या समूह वाले क्षेत्रों की ओर आकर्षित होते हैं।
आपको हमारे द्वारा अल्फ्रेड वेबर का औद्योगिक अवस्थिति सिद्धान्त (Alfred Weber’s Theory of Industrial Location) पर लिखा हुआ यह लेख कैसा लगा, आप अपनी राय comment box में अवश्य दें। ताकि हम इसमे अपेक्षित सुधार कर सकें।